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जैनधर्मामृत स्थावर जीवोंकी हिंसा अधिक हो, ऐसे जमीकन्द, मूली, गीला अदरक, मक्खन, नीमके फूल और केतकीके फूल इत्यादिका खाना छोड़ देना चाहिए। जो भक्ष्य होने पर भी हानिकर हो उसे अनिष्ट कहते हैं। जो भले पुरुषोंके सेवन करने योग्य न हो उसे अनुपसेव्य कहते हैं । सो ऐसे अनिष्ट और अनुपसेन्य पदार्थोंका भी त्याग करना चाहिए। क्योंकि किसी भी योग्य विषयसे अभिप्राय पूर्वक जो त्याग किया जाता है उसे जिन-शासनमें व्रत कहा गया है ।।१०५-१०६॥
अतिथिसंविभाग-शिक्षात्रत विधिना दातूगुणवता द्रव्यविशेषस्य जातरूपाय ।
स्वपरानुग्रहहेतोः कर्तव्योऽवश्यमतिथये भागः ।।१०७॥ आगे कहे जानेवाले दातारके गुणोंसे युक्त श्रावकको चाहिए कि यथाजातरूपके धारक दिगम्बर साधुके लिए विधिपूर्वक नवधा भक्तिके साथ आहारादि द्रव्यविशेषका स्व और परके अनुग्रहनिमित्त अवश्य ही विभाग करे। इसे अतिथिसंविभाग नामका चौथा शिक्षा व्रत कहते हैं ।।१०७।।
नवधा भक्तिके नाम संग्रहमुञ्चस्थानं पादोदकमर्चनं प्रणामं च ।
वाक्षायमनःशुद्धिरेपणशुद्धिश्च विधिमाहुः ॥१०॥ __भक्ति पूर्वक अतिथिके सम्मुख जाकर उन्हें संग्रह करना अर्थात् पड़िगाहना, ऊँचा स्थान देना, चरण धोना, पूजन करना, नमस्कार करना, मनःशुद्धि, वचनशुद्धि, कायशुद्धि और भोजनशुद्धि, इस नव प्रकारकी भक्तिको पात्रदानकी विधि कहा गया है ।।१०८।।
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