Book Title: Jain Dharmamruta
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 156
________________ चतुर्थ अध्याय मरणकालमें सल्लेखना या संन्यासका धारण करना श्रावकका परम कर्त्तव्य है, व्रतरूपी मन्दिर पर कलश चढ़ाने के समान है, अतएव अब सल्लेखनाका वर्णन करते हैं - इयमेव समर्था धर्मस्वं मे मया समं नेतुम् । सततमिति भावनीया पश्चिमसल्लेखना भक्स्या ||११५ ॥ १४३ यह एक अकेली ही सल्लेखना मेरे धर्मरूपी धनको मेरे साथ ले चलने के लिए समर्थ है, इस प्रकार भक्ति करके मरण के समय सल्लेखना की प्राप्तिके लिए निरन्तर भावना करना चाहिए ॥११५॥ भावार्थ - प्रसन्नता पूर्वक विना किसीके आग्रहके कषाय और शरीरके कृश करनेको सल्लेखना कहते हैं । यह सल्लेखना जीवन के अन्तमें धारण की जाती है । मरणान्तेऽवश्यमहं विधिना सल्लेखनां करिष्यामि । इति भावनापरिणतो नागतमपि पालयेदिदं शीलम् ॥ ११६ ॥ मैं मरणके समय अवश्य ही विधिपूर्वक सल्लेखना करूँगा, इस भावना से परिणत होकर मरण - काल प्राप्त होनेके पूर्व ही यह सल्लेखना व्रत पालन करना चाहिए ॥ ११६॥ सल्लेखना या समाधिमरण आत्मघात नहीं है . मरणेऽवश्यं भाविनि कपायसल्लेखनातनूकरणमात्रे | रागादिमन्तरेण व्याप्रियमाणस्य नात्मघातोऽस्ति ॥११७॥ अवश्य ही मरणके होने पर कवाय सल्लेखनाके कृशीकरणमात्र व्यापार में प्रवर्तमान पुरुषके रागादिभाव के विना आत्मघात नहीं है ॥११७॥ भावार्थ - यतः समाधिमरण करनेवाले पुरुषके परिणामों में

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