Book Title: Jain Dharmamruta
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 152
________________ १३६ - चतुर्थ अध्याय भावार्थ-उक्त विधिसे जो १६ पहर अर्थात् ४८ घण्टे तक अन्न-जलके सेवनका परित्याग कर सारा समय धर्माराधनमें व्यतीत करता है, उस समय उसे पूर्ण अहिंसात्रती अर्थात् अहिंसा महाव्रत का धारक जानना चाहिए । भोगोपभोगपरिणामशिक्षाबत भक्षार्थानां परिसंख्यानं भोगोपभोगपरिमाणम् । अर्थवतामप्यवधौ रागरतीनां तनूकृतये ॥१०३ ॥ परिग्रह परिमाणके समय मर्यादा किये गये भी प्रयोजन भूत इन्द्रिय-विषयोंका राग और आसक्तिके कृश करनेके लिए परिमित संख्या में रखनेका नियम करना भोगोपभोग परिमाण नामका तीसरा शिक्षात्र त है ।।१०३।। भोग और उपभोगका स्वरूप भुक्त्वा परिहातव्यो भोगो भुक्त्वा पुनश्च भोक्तव्यः । उपभोगोऽशनवसनप्रभृतिः पञ्चेन्द्रियो विषयः ॥१०॥ जो भोजन आदि पञ्चेन्द्रिय सम्बन्धी विषय एक बार भोग कर छोड़ दिये जाते हैं, वे भोग कहलाते हैं और जो वस्त्र आदि एक बार भोगकर पुनः सेवन करनेमें आते हैं, उन्हें उपभोग कहते हैं ॥१०४॥ · अल्पफलबहुविधातान्मूलकमाणि शृङ्गवेराणि । . नवनीतनिम्बकुसुमं कैतकमित्येवमवहेयम् ।।१०५॥ यदनिष्टं तद् व्रतयेद्यच्चानुपसेव्यमेतदपि जह्यात् । '. अभिसन्धिकृता विरतिविपयायोग्याद् व्रतं भवति ।।१०६॥ जिनके भक्षण करनेसे शारीरिक लाभ तो कम हो, और ।

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