Book Title: Jain Dharmamruta
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 151
________________ जैनधर्मामृत उपवास ग्रहण करने के अनन्तर एकान्त वसतिकामें जाकर समस्त साचद्ययोगका परिहार कर और सर्व इन्द्रियोंके विषयोंसे विरक्त होकर मन, वचन और कायकी रक्षा करता हुआ ठहरे ||९८|| ૨૬ धर्मध्यानासक्तो वासरमतिवाद्य विहितसान्ध्यविधिः । शुचिसंस्तरे त्रियामां गमयेत्स्वाध्यायजितनिद्रः ॥६६॥ धर्मध्यानमें लवलीन होकर दिनका अवशिष्ट भाग विताकर और सन्ध्याकालीन क्रियाओंको करके पवित्र विस्तरपर स्वाध्यायसे निद्राको जीतता हुआ रात्रिके तीन पहरोंको बितावे ॥ ६६ ॥ प्रातः प्रोत्थाय ततः कृत्वा तात्कालिकं क्रियाकल्पम् । निर्वर्तयेद्यथोक्तं जिन पूजां प्रासुकैर्द्रव्यः ॥१००॥ प्रातःकाल ब्राह्ममुहूर्त्तमें उठकर और तात्कालिक क्रियाओंको करके प्रासुक द्रव्योंसे जिनभगवान्का आगमानुसार पूजन करे ॥१००॥ उक्तेन ततो विधिना नीत्वा दिवसं द्वितीयरात्रिं च । भतिवाहयेत्प्रयत्नादर्धं च तृतीयदिवसस्य ॥१०१॥ पुनः उक्त विधिसे धर्मध्यान पूर्वक सम्पूर्ण दिनको और दूसरी रात्रिको विताकर सावधानीसे तीसरे दिन के अर्धभागको भी विताये ॥ १०१ ॥ इति यः पोडशयामान् गमयति परिमुक्तसकलसावद्यः । तस्य तदानीं नियतं पूर्णम हिंसाव्रतं भवति ॥१०२॥ इस प्रकार जो जीव समस्त सावद्ययोगसे रहित होकर सोलह पहर धर्मध्यान पूर्वक व्यतीत करता है, उसके उतने समय तक नियमसे सम्पूर्णं अहिंसा व्रत होता है ॥ १०२ ॥

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