Book Title: Jain Dharmamruta
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 149
________________ जैनधर्मामृत चारका सदन, चोरी और असत्यका आस्पद आको दुरसे ही त्याग करना चाहिए ॥११॥ भावार्थ-व्यापारिक सौदे-सट्टे भी चूत-व्यसनके अन्तर्गत हैं, अतः व्रती पुरुप उनका भी परित्याग करे । एवंविधमपरमपि ज्ञात्वा मुञ्चत्यनर्थदण्डं यः । तन्यानिशमनवद्य विजयमहिंसावतं लभते ॥३२॥ इस प्रकारके अन्य भी अनर्थदण्डोंको जान कर जो पुरुष । उनका त्याग करता है, उसका अहिंसावत निर्दोष होकर सदा विजयको प्राप्त होता है ।।१२॥ श्रावकका लक्ष्य सदा आगे बढ़नेका रहता है, अतएव वह समस्त पापोंके त्यागकी शिक्षा देने वाले शिक्षाव्रतोंका भी पालन करता है। शिक्षावतके चार भेद हैं-सामायिक, प्रोषधोपवास, भोगोपभोग परिमाण और अतिथिसंविभाग या वयावृत्य । यहाँ पर उनका क्रमसे वर्णन किया जाता है। सामायिक-शिक्षाव्रत रागद्वेपत्यागान्निखिलद्रव्येषु साम्यमवलम्व्य । तत्वोपलब्धिमूलं बहुशः सामायिक कार्यम् ॥६॥ राग और द्वेषका त्यागकर तथा समस्त द्रव्योंमें साम्यभावका आलम्बन कर तत्त्वोंके रहस्य-प्राप्तिका मूल कारण सामायिक वारम्बार करना चाहिए ॥१३॥ रजनी-दिनयोरन्ते तदवश्यं भावनीयमविचलितम् । इतरत्र पुनः समये न कृतं दोपाय तद्द्वणाय कृतम् ॥१४॥ , सामायिकको रात्रि और दिनके अन्तमें एकाग्रतापूर्वक अवश्य

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