Book Title: Jain Dharmamruta
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 150
________________ १३७ चतुर्थ अध्याय ही करना चाहिए । यह सामायिक उक्त समयके अतिरिक्त यदि अन्य समयमें की जाय, तो कोई दोष नहीं प्रत्युत गुणके लिए ही है अर्थात् गुण-वर्धक है ॥१४॥ सामायिकं श्रितानां समस्तसावधयोगपरिहारात् । भवति महावतमेपामुदयेऽपि चरित्रमोहस्य ॥६५॥ सामायिक करने वाले जीवोंके समस्त सावध योगका परिहार हो जानेसे चारित्र-मोहका उदय होने पर भी उनके अणुव्रत महाव्रतरूप हो जाते हैं ॥१५॥ भावार्थ-सामायिक करते समय अणुव्रती गृहस्थ भी महाव्रतीके समान है। प्रोपधोपवास-शिक्षाव्रत सामायिकसंस्कारं प्रतिदिनमारोपितं स्थिरीकर्ते म् । पक्षार्धयोर्द्वयोरपि कर्तव्योऽवश्यमुपवासः ॥६६॥ प्रतिदिन धारण किये हुए सामायिकके संस्कारको स्थिर करने के लिए दोनों पक्षोंके अर्ध भागमें उपवास अवश्य ही करना . चाहिए ॥९६॥ मुक्तसमस्तारम्भः प्रोपधदिनपूर्ववासरस्यार्धे । उपवासं गृह्णीयान्ममत्वमपहाय देहादौ ॥१७॥ प्रोषधोपवास करनेके पूर्ववर्ती दिनके आधे समयसे समस्त आरम्भ छोड़कर और शरीरादिकसे ममत्व त्यागकर उपवासको ग्रहण करे ॥९७|| श्रित्वा विविक्तवसति समस्तसावद्ययोगमपनीय । . .. सर्वेन्द्रियार्थविरतः कायमनोवचनगुप्तिभिस्तिष्ठेत् ॥८॥

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