Book Title: Jain Dharmamruta
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 148
________________ चतुर्थ अध्याय १३५ प्रमादचर्या-अनर्थदण्ड भूखनन-वृक्षमोहन-शाड्बलदलनाम्बुसेचनादीनि । निष्कारणं न कुर्याद्दलफलंकुसुमोच्चयानपि च ॥८॥ .. निष्कारण पृथिवी खोदना, वृक्ष उखाड़ना, हरी दूर्वा पर चलना, पानी सींचना, तथा पत्र, फल और फूलोंका संचय करना प्रमादचर्या है, इसे नहीं करना चाहिए ।।८८|| . हिंसादान-अनर्थ दण्ड असि-धेनु-विप-हुताशन-लाङ्गल करवाल-कार्मुकादीनाम् । वितरणमुपकरणानां हिंसायाः परिहरेद्यत्नात् ॥६॥ छुरी, विष, अग्नि, हल, तलवार और धनुष आदि हिंसाके उपकरणोंका दूसरोंको देना हिंसादान अनर्थदण्ड है, इसका यत्न पूर्वक त्याग करे ॥८९॥ - दुःश्रुति-अनर्थदण्ड . रागादिवर्धनानां दुष्टकथानामवोधबहुलानाम् । न कदाचन कुर्वीत श्रवणार्जनशिक्षणादीनि ॥३०॥ राग-द्वेषादिके बढ़ानेवाली और अज्ञानतासे भरी हुई खोटी कथाओंका सुनना, संग्रह करना और शिक्षण देना सो दुःश्रुति नामक अनर्थदण्ड है, उसे कदाचित् भी नहीं करना चाहिए ।।९०॥ ____ चूत-त्यागका उपदेश . सर्वानर्थप्रथनं मथनं शौचस्य सम्म मायायाः। दूरात्परिहरणीयं चौर्यात्सत्यास्पदं घूतम् ॥६॥ . सर्व अनाँका जनक, सन्तोष और पवित्रताका नाशक, माया

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