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जैनधर्मामृत वैराग्यस्य परां काष्टामधिरूढोऽधिकप्रभः । . . . . . दिगम्बरो यथाजातरूपधारी दयापरः ॥१०॥ निर्ग्रन्थोऽन्तर्बहिर्मोहग्रन्थेरुद्ग्रन्थको यमी। कर्मनिर्जरकः श्रेण्या तपस्वी स तपोऽशुभिः ॥१०॥ परीपहोपसर्गाद्यैरजय्यो जितमन्मथः । एपणाशुद्धिसंशुद्धः प्रत्याख्यानपरायणः ।।१०२।। इत्याद्यनेकधाऽनेकः साधुः साधुगुणैः श्रितः।
नमस्यः श्रेयसेऽवश्यं नेतरो विदुपां महान् ।।१०३।। मोक्षका मार्ग चारित्र है, उस चारित्रको जो सद्भक्ति-पूर्वक आत्मसिद्धिके लिए साधन करते हैं उन्हें साधु कहते हैं । इस प्रकार यह साधुसंज्ञा सार्थक है। ये साधुजन न तो किसीसे कुछ कहते ही हैं और न हस्त अंगुलि आदिसे किसी प्रकारका संकेत ही करते हैं; तथा मनसे . भी किसी अन्य प्रकारके विकल्पका चितवन नहीं करते; किन्तु एकाग्रचित्त होकर केवल अपने शुद्धात्माका ध्यान करते हैं। जिनकी अन्तरंग और बाह्य प्रवृत्तियाँ बिलकुल शान्त हो चुकी हैं जो तरंग-रहित समुद्र के समान गम्भीर हैं वे साधु कहलाते हैं। वे न तो किसीको कुछ आदेश ही देते हैं और न उपदेश ही करते हैं। यहाँ तक कि स्वर्ग और मोक्षमार्गके विषयमें भी उपदेश और आदेश नहीं करते; फिर इनके विपक्षभूत सांसारिक विषयोंकी तो बात ही क्या है ? वैराग्यकी परमकाष्ठाको प्राप्त वे मुनिजन महाप्रभावशाली, दिशारूपी वस्त्रोंके धारण करनेवाले, यथांजात रूपके धारक, दयालु, निप्परिग्रह, अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग मोह-ग्रन्थियोंके खोलनेवाले, संयमके धारक असंख्यात गुणित श्रेणीके क्रमसे कर्मोंकी निर्जरा करनेवाले, तपरूपी किरणों के द्वारा भास्वान् , परीषह और उपसर्गादिकोंसे अजय्य, महातपस्वी, कामदेवके जीतनेवाले, एषणा