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तृतीय अध्याय
हहं
मति । जो दूसरेके मनमें स्थित सीधी-सादी सरल बातको जाने, उसे ऋजुमति मन:पर्ययज्ञान कहते हैं । और जो दूसरेके मनकीं कुटिलसे कुटिल बातको भी जान लेवे उसे विपुलमति मन:पर्ययज्ञान कहते हैं । यह मन:पर्ययज्ञान महान् संयमके धारक साधुओंके ही होता है । उसमें भी विपुलमति मन:पर्ययज्ञान तो तद्भवमोक्षगामी जीवके ही होता है, इसीलिए उसे अप्रतिपाती कहते हैं ।
केवलज्ञानका स्वरूप
अशेषद्रव्यपर्यायविषयं विश्वलोचनम् । अनन्तमेकमत्यक्षं केवलं कीर्तितं बुधैः ॥ ८ ॥
जो समस्त द्रव्योंके अनन्त पर्यायोंको जाननेवाला है, सर्व विश्व के देखनेको नेत्र समान है, अनन्त है, एक है, अतीन्द्रिय है, उसे विद्वानोंने केवलज्ञान कहा है ॥ ८ ॥
कल्पनातीतमभ्रान्तं स्वपरार्थावभासकम् । जगज्ज्योतिरसन्दिग्धमनन्तं सर्वदोदितम् ॥६॥
वह केवलज्ञान कल्पनातीत है, भ्रान्ति-रहित है, स्व और पर पदार्थोंका निश्चय करानेवाला है, जगत्प्रकाशक है, सन्देह-रहित हैं, अनन्त है और सदा काल उदयरूप है, अर्थात् इसका किसी समय में किसी प्रकार से भी अभाव नहीं होता है ॥९॥
अनन्तानन्तभागेऽपि यस्य लोकश्वराचरः ।
अलोकश्च स्फुरत्युच्चैस्तज्ज्योतिर्योगिनां मतम् ॥१०॥
जिस केवलज्ञानके अनन्तानन्त भाग करने पर भी यह चराचर लोकाकाश और अलोकाकाश बहुत अच्छी तरह प्रतिभासित होता