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चतुर्थ अध्याय
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भेदोंसे त्याग करनेको आपवादिकी निवृत्ति कहते हैं। इस प्रकार इसके अनेक भेद होते हैं। इसलिए प्रत्येक पुरुषको अपनी परिस्थिति और शक्तिके अनुसार हिंसाका यथासंभव त्याग करना ही चाहिए।
स्तोकेन्द्रियघाताद् गृहिणां सम्पन्नयोग्यविषयाणाम् । ' शेषस्थावरमारणविरमणमपि भवति करणीयम् ॥५०॥ .
अल्प एकेन्द्रिय जीवोंके घातसे योग्य विषयोंको सम्पन्न करनेवाले गृहस्थोंको अप्रयोजनभूत शेष स्थावर जीवोंके घातका भी त्याग करना आवश्यक है । अर्थात् अनावश्यक पृथ्वी, जलादि एकेन्द्रियजीवोंकी भी हिंसा नहीं करनी चाहिए ॥५०॥ ... __पङ्गु-कुष्ठि-कुणित्वादि दृष्ट्वा हिंसाफलं सुधीः ।
निरागस्त्रसजन्तूनां हिंसां सङ्कल्पतस्त्यजेत् ॥५१॥ हिंसा-जनित पापके बलसे ही लोग पंगु (लूले-लंगड़े ), कोढ़ी और विकलांग होते हैं । अतएव बुद्धिमानोंको चाहिए कि वे सङ्कल्पपूर्वक निरपराधी सप्राणियोंकी तो हिंसाका पारित्याग करें ॥५१॥
हिंसा-पाप ही समस्त दुःखोंका वोज है यत्किञ्चित्संसारे शरीरिणां दुःखशोकभयबीजम् ।
दौर्भाग्यादि समस्तं तद्धिसासम्भवं ज्ञेयम् ॥५२॥ संसारमें प्राणियोंके जितने भी दुःख, शोक, भय और दुर्भाग्य आदि प्राप्त होते हैं, वे सब हिंसासे उत्पन्न हुए जानना चाहिए ॥५२॥ . .
आयुष्मान् सुभगः श्रीमान् सुरूपः कीर्तिमान्नरः । अहिंसावतमाहात्म्यांदेकस्मादेव जायते ॥५३॥