Book Title: Jain Dharmamruta
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 139
________________ १२६ जैनधर्मामृत नियम (त्याग) होता है उनके पास स्वयं वरण करनेवाली नाना प्रकारकी सम्पदाएँ स्वयं ही सम्मुख आती हैं ॥६॥ अनर्थाः दूरतो यान्ति साधुवादः प्रवर्तते । स्वर्गसौख्यानि ढोकन्ते स्फुटमस्तेयचारिणाम् ॥६॥ जो पुरुष निर्मल अचौर्यव्रतके धारक हैं, उनके पाससे अनर्थ दूर रहते हैं, संसारमें उनका साधुवाद फैलता है और स्वर्गाके सुख उनको प्राप्त होते हैं ॥६॥ ___ दौर्भाग्यं प्रेप्यतां दास्यमङ्गच्छेदं दरिद्रताम् । अदत्तात्तफलं ज्ञात्वा स्थूलस्तेयं विवर्जयेत् ॥६२॥ अभागीपना, दासपना, सेवकपना, अंगच्छेद और दरिद्रता ये सब चोरी करनेके फल हैं, ऐसा जानकर स्थूल चोरीका त्याग करना चाहिए ॥२॥ निहितं वा पतितं वा सुविस्मृतं वा परस्वमविसृष्टम् । न हरति यन्न च दत्ते तदकृशचौ-दुपारमगम् ॥१३॥ रखे हुए, गिरे हुए या भूले हुए पराये धनको बिना दिये जो न तो स्वयं लेता है और न उठाकर दूसरेको देता है, उसे स्थूल चोरीसे विरक्त होना अर्थात् अचौर्याणुव्रत कहते हैं ॥६३॥ ब्रह्मचर्याणुव्रतका स्वरूप प्राणसन्देहजननं परमं वैरकारणम् । लोकद्वयविरुद्धं च परस्त्रीगमनं त्यजेत् ॥६॥ प्राणोंकी स्थितिमें सन्देह उत्पन्न करनेवाला, परम वैरका कारण और दोनों लोकोंमें विरोधजनक ऐसे परस्त्री गमनको छोड़ देना चाहिए ॥६४॥

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