Book Title: Jain Dharmamruta
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 143
________________ १३० जैनधर्मामृत उपर्युक्त आशंका ठीक नहीं है, क्योंकि, अन्नका ग्रास खानेकी अपेक्षा मांसका ग्रास खानेमें जिस प्रकार राग अधिक होता है, उसी प्रकार दिनमें भोजन करनेकी अपेक्षा रात्रि भोजन करनेमें निश्चयसे रागकी अधिकता होती है ॥७६॥ भावार्थ-उदर भरणकी अपेक्षा सर्व प्रकारके भोजन समान हैं, परन्तु अन्नके भोजनमें जैसा सामान्य रागभाव होता है, वैसा मांस-भोजनमें नहीं होता, किन्तु मांस-भक्षणमें विशेष ही रोग भाव होता है, क्योंकि अन्नका भोजन सब मनुष्योंको सहज ही मिलता है और मांसका भोजन विशेष प्रयत्न-साध्य और प्राणि-घातसे ही सम्भव है। इसी प्रकार दिनका भोजन अल्प प्रयत्ल-साध्य है, अतः उसमें साधारण राग भाव होता है किन्तु रात्रिका भोजन महाप्रयत्नसे ही संभव है, आरम्भ आदि बहुत करना पड़ता है, अंधेरेमें जाने-आने, पकाने-खानेमें विपुल हिंसा होती है, और भोजनकी अधिक लोलुपता होती है, अतः रागभाव अधिक ही होता है, अतएव रात्रि भोजन त्याज्य ही है। अर्कालोकेन विना भुक्षानः परिहरेत् कथं हिंसाम् । अपि वोधितः प्रदीपो भोज्यजुपां सूक्ष्मजीवानाम् ॥७७॥ सूर्यके प्रकाशके विना रात्रिमें भोजन करनेवाले पुरुषके दीपक के जलाने पर भी भोजनमें गिर गये सूक्ष्म जन्तुओंकी हिंसा किस प्रकार दूर की जा सकती है ? अर्थात् दूर नहीं की जा सकती ||७७|| भावार्थ-दीपकके प्रकाशमें सूक्ष्म त्रस जीव दृष्टिगोचर नहीं होते,' तथा रात्रिमें दीपक-विजली आदिके प्रकाशसे नाना

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