Book Title: Jain Dharmamruta
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 144
________________ चतुर्थ अध्याय १३१ प्रकारके जीवोंका भारी संचार होता है, और उनका भोजन में पतन निश्चित है, अतएव रात्रि - भोजनमें प्रत्यक्ष हिंसा है । जो रात्रिभोजन करता है, वह हिंसासे कभी बच नहीं सकता । जलोदरादिकृद्यूकाद्यङ्कमप्रे च्यजन्तुकम् । प्रेताद्युच्छिष्टसुत्सृष्टमप्यश्नन्निश्यहो सुखी ॥७८॥ जलोदर आदिको करनेवाले जूँ आदि जिसमें गिर पड़े, तो भी दिखाई नहीं देते, जो भूत प्रेत आदिसे जूँठा कर लिया गया है, अथवा खा लिया गया है; ऐसे भी भोजनको रात्रि में खाता हुआ मनुष्य अपनेकी सुखी मानता है, यह बड़ा आश्चर्य है ||७८ || भावार्थ - - रात्रिभोजन में पड़ा हुआ जूँ भी जीरा-सा दिखता है, वह यदि खाने में आजाय तो जलोदररोग हो जाता है, कीड़ी खाने में आजाय तो मेधा बढ़ जाती है, मकड़ीके खाने पर कोढ़ निकल आता है, बाल खालेने पर स्वर भंग हो जाता है, इस प्रकार सैकड़ों अनर्थोंकी जड़भूत भी इस रात्रिभुक्तिको करते हुए लोग आनन्दका अनुभव करते हैं, यह बड़े आश्चर्य की बात है । उलूककाकमार्जारगृध्रशम्बरशुकराः । अहिवृश्चिकगोधाश्च जायन्ते रात्रिभोजनात् ॥७६॥ रात्रि-भोजन करनेके पापसे यह जीव उल्लू, कौवा, बिल्ली, गीध, स्याल, शूकर, सांप, बिच्छू और गोहरा होता है ||७९ || किं वा बहुप्रलपितैरिति सिद्धं यो मनोवचनकायैः । परिहरति रात्रिभुक्तिं सततमहिंसां स पालयति ॥८०॥ 'बहुत अधिक कहने से क्या, जो पुरुष मन, वचन, कायसे

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