Book Title: Jain Dharmamruta
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 145
________________ जैनधर्मामृत रात्रिभोजनका त्याग करता है वह निरन्तर अहिंसाका पालन करता है ।।८०॥ भावार्थ--जिस भाग्यशालीने रात्रिभोजनका सर्वथा त्याग कर . दिया है वही सच्चा अहिंसक है । ऊपर जिन पाँच अणुव्रतोंका वर्णन किया गया है, उनकी रक्षा .. और वृद्धि करनेवाले व्रतोंको गुणत्रत कहते हैं । वे तीन होते हैं । दिखत, देशवत और अनर्थदण्डव्रत । यहाँ उसका क्रमसे वर्णन . किया जाता है परिधय इव नगराणि व्रतानि किल पालयन्ति शीलानि । व्रतपालनाय तस्माच्छीलान्यपि पालनीयानि ॥८॥ जिस प्रकार परिखा ( खाई ) या नगर-कोट नगरोंको रक्षा : करते हैं, उसी प्रकार शील पाँच अणुव्रतोंकी रक्षा करते हैं। इसलिए श्रावकको अपने व्रतोंकी रक्षाके लिए सात शीलोंका अवश्य पालन करना चाहिए ॥८॥ दिग्बतका स्वरूप प्रविधाय सुप्रसिद्धैमर्यादा सर्वतोऽप्यभिज्ञानैः । । प्राच्यादिभ्यो दिग्भ्यः कर्त्तव्या विरतिरविचलिता ॥२॥ सुप्रसिद्ध ग्राम, नदी, पर्वतादि प्रत्यभिज्ञानोंसे (चिह्न-विशेषोंसे) सब ओर मर्यादा करके पूर्व आदि दिशाओंका अविचल त्याग करना चाहिए। अर्थात् मयादित क्षेत्रसे बाहर. यावज्जीवन नहीं ... जाना-आना चाहिए ॥८२॥

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