Book Title: Jain Dharmamruta
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 134
________________ चतुर्थ अध्याय भावार्थ-उक्त चारों पदार्थोके सेवनसे काम, क्रोधादि महान् विकार उत्पन्न होते हैं, इसलिए इन्हें 'महाविकृति' कहते हैं । उदुम्बर-फल-भक्षणके दोष योनिरुदुम्बरयुग्मं प्लक्षन्यग्रोधपिप्पलफलानि । त्रसजीवानां तस्मात्तेषां तद्भक्षणे हिंसा ॥४५॥ . ऊमर, कठूमर, पिलखन, बड़ और पीपलके फल त्रस जीवोंकी योनि हैं, इनके भीतर त्रस जीव उत्पन्न होते हैं इसलिए इन पाँचों · उदुम्बर-फलोंके भक्षणमें त्रस जीवोंकी हिंसा होती है ।।४५॥ यानि तु पुनर्भवेयुः कालोच्छिन्ननसाणि शुष्काणि । भजतस्तान्यपि हिंसा विशिष्टरागादिरूपा स्यात् ॥४६॥ और जो सूखे हुए उदुम्बर फल . काल पाकर त्रस जीवोंसे रहित हो जाते हैं, तो उनको भी भक्षण करनेवालेके विशेष रागादिरूप भावहिंसा होती है ॥४६॥ .. भावार्थ-प्रथम तो सूखे उदुम्बर फलोंके त्रस जीच भी उसके भीतर ही मर जाते हैं। इसलिए उनके मृतक शरीर उनके भीतर रहनेसे उन्हें खानेवालोंको मांस-भक्षणका दोष लगता है। दूसरे ऐसे हिंसामय एवं मृत. प्राणि-प्रचुर फलोंका भक्षण रागभावकी तीव्रताके विना नहीं होता, इस कारण इनके भक्षण में भावहिंसा भी.. है ही। अतः सूखे भी उदुम्बर फल नहीं खाना चाहिए। अष्टावनिष्टदुस्तरदुरितायतनान्यमूनि परिवयं । . . . जिनधर्मदेशनाया भवन्ति पात्राणि शुद्धधियः ।।४।। .. जो पुरुष अनिष्ट, दुस्तर और पापोंके स्थान भूत इन उपर्युक्त

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