Book Title: Jain Dharmamruta
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 105
________________ • तृतीय अध्याय : संक्षिप्त सार • सर्वप्रथम धर्मके दूसरे भेद सम्यग्ज्ञानका और उसके मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञान इन पाँच मेदोंका स्वरूप वतला करके अन्तमें बतलाया गया है कि सम्यग्ज्ञान ही संसाररूपी मरुस्थलीमें दुःखरूपी अग्निसे संतप्त प्राणियोंको अमृतरूप जलसे तृप्त करनेवाला है। जबतक जीवके भीतर ज्ञानरूप सूर्यका उदय नहीं होता, तब तक ही समस्त जगत् अज्ञानरूप अन्धकारसे आच्छादित रहता है। किन्तु ज्ञानके प्रकट होते ही अज्ञानान्धकारका विनाश हो जाता है। सम्यग्ज्ञान ही इन्द्रियरूप चंचल मृगोंको बाँधनेके लिए दृढ़ पाशके समान है, चंचल और कुटिल चित्तरूपी सर्पको वशमें करनेके लिए गारुड मन्त्रके समान है, इसलिए सम्यग्ज्ञानको प्राप्त करनेका प्रयत्न करना चाहिए । सम्यग्ज्ञानकी महिमा बतलाते हुए कहा गया है कि अज्ञानी जीव कोटि जन्म तप करके जितने कर्मोंका विनाश करता है, सम्यग्ज्ञानी जीव उससे भी असंख्यात गुणित कर्मोंका क्षय निमेष मात्रमें या आधे क्षणमें कर देता है। जिन लौकिक कार्योंको करते हुए अज्ञानी जीव कोंका बन्ध करता है उन्हीं कार्योंको करते हुए सम्यग्ज्ञानी जीव कर्मोंकी निर्जरा ( विनाश) करता है। अज्ञानी साधु चिरकाल तक तपस्या करते हुए भी अपनी आत्माको कर्मोंसे वाँधता है किन्तु ज्ञानी साधु बाहरी तपश्चरणादि नहीं करते हुए भी अपने आपको कर्म-बन्धनोंसे मुक्त करता रहता है। इसलिए मनुष्यको सम्यग्ज्ञान प्राप्त करनेका निरन्तर प्रयत्न करते रहना चाहिए।

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