Book Title: Jain Dharmamruta
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 100
________________ द्वितीय अध्याय शुद्धिसे परमशुद्ध, चारित्रमें सदा तत्पर, प्रत्याख्यान प्रतिक्रमण आदिमें सदा सावधान और साधुओंके सर्वगुणोंसे सम्पन्न साधु परमेष्ठी होते हैं। वे ही साधु परमेष्ठी मुमुक्षुजनोंके द्वारा आत्मकल्याणके लिए नमस्कारके योग्य हैं । उक्त गुणोंसे रहित साधु संज्ञाका धारक भी पुरुष विद्वानोंके नमस्कार योग्य नहीं है ॥६६-१०३॥ . इन उपर्युक्त पाँचों परमेष्ठियोंमेंसे. अर्हन्त तो. जीवन्मुक्ति रूप तथा सिद्ध परम सिद्धि रूप मुक्तिपदमें अवस्थित होनेसे परमेष्ठीं हैं . ही। शेष तीनों वीतराग मार्ग: पर आरूढ होनेसे परमेष्ठी कहलाते हैं। सम्यग्दृष्टि जीव भी.राग-द्वेषको छोडकर वीतरागतारूप परम शान्तिके प्राप्त करनेका अभिलाषी होता है, अतः इन पंच परमेष्ठियोंको अपना आदर्श मानता है और उनके गुणोंको प्राप्त करनेके लिए सदैव उनकी वन्दना-भक्ति करते हुए उनके नामका स्मरण किया करता है। यहाँ यह बात ज्ञातव्य है कि यद्यपि सर्व-कर्ममल-कलङ्कसे रहित होनेके कारण सिद्धपरमेष्ठी, महान् हैं, तथापि उन्हें पहले नमस्कार न करके अरहन्तपरमेष्ठीको जो. प्रथम नमस्कार किया गया है, उसका कारण यह है कि एक तो हम अरहन्तके उपदेशसे.ही सिद्धोंका महत्त्व जानते हैं और दूसरे उनके द्वारा ही हमें यह बोध प्राप्त हुआ है कि हम भी पुरुषार्थ कर उनके समान बन सकते हैं। अतएव आसन्न उपकारी होनेसे उपर्युक्त अनादि मूलमन्त्रमें अरहन्तोंको पहले नमस्कार किया गया है ।। __ सम्यग्दर्शनको महिमा . : . : ... सम्यग्दर्शनसम्पन्नमपि मातङ्गदेहजनु । ... .. ...... देवाः देवं विदुर्भस्मगूढाङ्गारान्तरौजसम् ॥३.०४॥ .

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