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प्रथम अध्याय
: पवित्रीक्रियते येन येनवोद्धियते जगत् ।
नमस्तस्मै दयाय धर्मकल्पाधिपाय वै ॥१॥ . __जो जगत्को पवित्र करे, संसारके दुखी प्राणियोंका उद्धार करे, उसे धर्म कहते हैं। वह धर्म दया-मूलक है और कल्प वृक्षके समान प्राणियोंको मनोवाञ्छित सुख देता है; ऐसे धर्मरूप कल्प
वृक्षके लिए मेरा नमस्कार है ।।१।। - इस मङ्गलात्मक पद्यमें धर्मका स्वरूप बतला करके उसे नमस्कार
किया गया है। धर्मके जितने लक्षण किये गये हैं, प्रायः उन - . सबका सूत्र रूपसे इस एक ही पद्यमें समावेश किया गया है। धर्मके ... मुख्य रूपसे चार लक्षण माने जाते हैं-१ 'इष्टे स्थाने धत्ते इति
धर्मः', २ 'संसार-दुःखतः सत्त्वान् यो धरत्युत्तमे सुखे', ३ धर्मो नाम दयामल:' और ४ 'यस्मादभ्युदय-निश्रेयससिद्धिः स धर्मः' । पद्यके पूर्वार्ध-द्वारा आदिके दो लक्षणोंका, 'दयााय'. पदके द्वारा .. तीसरे लक्षणका और कल्पवृक्षकी उपमा देकर चौथे लक्षणका संग्रह कर दिया गया है। इस प्रकार यह फलितार्थ हुआ कि जो पतितोंको पवित्र करे, संसार-सागरमें निमग्न या भवाटवीमें भटकनेवाले
दुखी प्राणियोंका उद्धार करे, उन्हें सुखास्पद रूप इष्ट स्थानमें .. पहुँचाने और उनके अभ्युदय (लौकिक सुख ). तथा निश्रेयस - (लोकोत्तर अतीन्द्रिय सुख ) की सिद्धि करे, उसे धर्म कहते हैं।