Book Title: Jain Dharmamruta
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 67
________________ जैनधर्मामृत भावार्थ - जैसे शरीरके आठ अङ्गोंमेंसे किसी भी अङ्गके कम होने पर मनुष्य विकलाङ्गी कहलाता है, उसी प्रकार किसी भी अङ्गके अभावमें सम्यग्दर्शन भी विकलाङ्गी रहेगा और वैसी दशा में वह हीनाक्षर मन्त्रके समान सर्वाङ्गमें व्याप्त कर्मरूप सर्पकी विषवेदनाको दूर करनेमें असमर्थ होगा । इस लिए सम्यग्दर्शनको पूरे आठों अङ्गोंके साथ ही धारण करना आवश्यक है, तभी उसमें असंख्य भव-संचित कर्मोंके और अनन्त संसारके नाश करने की शक्ति प्रकट होगी । सम्यग्दर्शन में विकार उत्पन्न करनेवाले पच्चीस दोष ५४ : मूढत्रयं मदाचाष्टौ तथाऽनायतनानि पट् । अष्टौ शङ्कादयश्चेति हग्दोषाः पञ्चविंशतिः ||२५|| तीन मूढताएँ, आठ मद, छह अनायतन और शङ्कादि आठ दोष, ये पच्चीस सम्यग्दर्शनके दोष हैं ||२५|| विशेषार्थ - मूर्खता पूर्ण कार्योंके करनेको मूढ़ता कहते हैं । वे तीन प्रकारकी होती हैं - लोकमूढ़ता, देवमूढ़ता और पाखण्डिमूढ़ता । अहङ्कार करनेको मद कहते हैं । वे आठप्रकारके होते हैं -- जातिमद, कुलमद, रूपमद, बलमद, ऋद्धिमद, तपमद, पूजामद और ज्ञानमद | अधर्मके आधारोंको अनायतन कहते हैं । वे कुदेव, कुशास्त्र, कुगुरु और इन तीनोंके सेवकके भेदसे छह प्रकारके हैं । तथा आठों अंगोंके नहीं पालन करनेसे तद्विपरीतरूप आठ दोष और होते हैं । उनके नाम इस प्रकार हैं-शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्यदृष्टिपूजा, परदोषानुपगूहनता, अस्थितिकरणता,

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