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: जैनधर्मामृत अपमानित करनेको महान् पाप एवं निंद्य कर्म समझने लगता है। इसलिए वह कभी किसी प्रकारका मद या अभिमान नहीं करता । किन्तु जो आत्मदर्शी नहीं हैं, बहिर्दृष्टि या मिथ्यात्वी हैं, वे ही जाति-कुलादिका मद करके अपने दोनों भवोंका विनाश कर लेते हैं और आत्म-हितसे वञ्चित रह जाते हैं। __अब आगे उक्त अर्थकी पुष्टि करते हुए शास्त्रकार मद करने वालोंके प्रति अपना हार्दिक दुःख प्रकट करते हैं
तन्निश्चयमधुरमनुकम्पया सद्भिरभिहितं पथ्यम् । तथ्यमवमन्यमाना रागद्वेपोदयोवृत्ताः ॥३५॥ जातिकुलरूपवललाभवुद्धिवाल्लभ्यकश्रुतमदान्धाः ।
कीबाः परत्र चेह च हितमप्यर्थं न पश्यन्ति ॥३६॥ अभिमानी और राग-द्वेषसे भरे हुए ऐसे लीव या नपुंसक जन सन्त-महर्षियोंके द्वारा अति अनुकम्पासे कहे गये मधुर, हितकारक तथ्य ( वास्तविक ) पथ्य ( रोग-नाशक और शक्तिवर्धक आहार ) का तिरस्कार कर जाति, कुल, रूप, बल, लाभ, बुद्धि, लोक-प्रियता (पूजा-प्रतिष्ठा ) और श्रुतके मदसे अन्ध होकर इस लोक और परलोक-सम्बन्धी आत्म-हितकी वस्तुको भी नहीं देखते हैं ॥३५-३६॥
जातिमद न करनेका उपदेश । ज्ञात्वा भवपरिवर्ते जातीनां कोटिशतसहस्रषु । हीनोत्तममध्यत्वं को जातिमदं बुधः कुर्यात् ॥३७॥ । नैकान् जातिविशेपानिन्द्रियनिर्वृत्तिपूर्वकान् सत्त्वाः । कर्मवशाद् गच्छन्त्यत्र कस्य का शाश्वता जातिः ॥३८॥