Book Title: Jain Dharmamruta
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 85
________________ ७२ जैनधर्मामृत क्षायिकीटक क्रियारम्भी केवलिक्रमसन्निधौ । कर्मचमाजो नरस्तत्र क्वचिन्निष्ठापको भवेत् ॥ ६४॥ क्षयस्यारम्भको यत्र परं तस्माद्भवत्रयम् । अनतिक्रम्य निर्वाति क्षीणदर्शनमोहतः ॥ ६५॥ दर्शनमोहनीयकर्म के क्षय हो जाने पर जो अनुपम लोकोत्तर, नित्य स्थायी और शेष कर्मसमुदायका घातक श्रद्धान होता है, उसे क्षायिक सम्यक्त्व कहते हैं । क्षायिकसम्यक्त्वी जीवका सम्यक्त्व या श्रद्धान युक्ति - दृष्टान्त आदिसे युक्त नाना प्रकारके तर्क - गर्भित वचनोंसे, सांसारिक प्रलोभनरूप अनेक उपायोंसे, भयङ्कर रूपोंके दिखानेसे, दुर्धर परीपह और असह्य यातनाओंके देनेसे भी कदापि चलायमान नहीं किया जा सकता । यहाँ तक कि स्वर्गके सारे देवता आकर भी उसे अपने श्रद्धानसे नहीं डिगा सकते । वज्रपात होने पर और प्रलयकालमें त्रैलोक्यके क्षोभित हो जाने पर भी क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव अडोल और अकम्प बना रहता है, कोई भी शक्ति उसे अपने श्रद्धानसे कदाचित् भी चल-विचल नहीं कर सकती । इस क्षायिकसम्यग्दर्शनकी प्राप्तिका प्रारम्भ अरहन्त केवली या द्वादशाङ्गश्रुतके पारगामी श्रुतकेवलीके चरण- सान्निध्य अर्थात् उनके चरण-शरणमें समुपस्थित कर्मभूमिमें उत्पन्न हुआ मनुष्य ही करता है । हाँ, उसकी निष्ठापना या पूर्णता किसी भी गतिमें की जा सकती है | दर्शनमोहनीय कर्मसे क्षयका प्रारम्भ करनेवाला मनुष्य संसारमें तीन भवसे अधिक नहीं रहता । अर्थात् दर्शनमोहके क्षीण हो जाने पर अधिक से अधिक वह संसारमें तीन बार और जन्म

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