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द्वितीय अध्याय __ अवात्सल्य और अप्रभावना । इन दोषोंके लगनेसे सम्यग्दर्शन मलिन
हो जाता है और अपना कार्य पूर्णरूपसे करनेमें असमर्थ रहता है।
१ लोकमूढ़ताका स्वरूप सूर्या? वह्निसत्कारो गोमूत्रस्य निषेवणम् ।
तत्पृष्टान्तन रो भृगुपातादिसाधनम् ॥२६॥ ... देहलीगेहरत्नाश्वगजशस्त्रादिपूजनम् ।
नदीनदसमुद्रेषु मजनं पुण्यहेतवे ॥२७॥ सङ्क्रान्तौ च तिलस्नानं दानं च ग्रहणादिषु ।
सन्ध्यायां मौनमित्यादि त्यज्यतां लोकमूढताम् ॥२८॥ सूर्यको अर्घ देना, अग्निकी पूजा करना, गायके मूत्रका सेवन करना, गायके पृष्ठ भागको नमस्कार करना, भृगुपात अर्थात् पर्वत आदि ऊँचे स्थानसे गिरना, अग्निमें प्रवेश आदि करना, मकानकी देहलीको पूजना, घर पूजना, रल, घोड़ा, हाथी, शस्त्र आदिकी पूजा करना, पुण्योपार्जनके लिए नदी, नद और समुद्रोंमें स्नान करना, मकर संक्रान्तिमें तिलसे स्नान करना, तिलोंका दान करना, सूर्य, चन्द्रग्रहणके समय दान करना और केवल सन्ध्या-समयं मौन धारण करनेको ही धर्म मानना, इत्यादि जो लोकमें मूढ़ताएँ प्रचलित हैं, उन्हें करनेको लोकमूढ़ता कहते हैं। जीवको इस लोकमूढ़ताका त्याग करना चाहिए ॥२६-२८॥ ..
२ देवमूढ़ताका स्वरूप ब्रह्मोमापतिगोविन्दशाक्येन्दुतपनादिपु । ___ मोहकादम्बरीमत्तेष्वाप्तधीर्देवमूढता ॥२६॥