Book Title: Jain Dharmamruta
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 65
________________ ફર जैनधर्मामृत पीड़ित देखकर उसे बचानेके लिए अपने प्राणोंकी भी आहुति देनेको तत्पर रहती है, ठीक इसी प्रकारसे धर्मात्माजनोंको देखकर आनन्दसे गद्गद होना और साधर्मी जनों पर आये हुए संकटको दूर करनेके लिए उद्यत रहना पर-वात्सल्य है । तथा आत्म-हितक धर्ममें अनुराग रखना, प्राणिमात्रका हित चाहनेवाली भगवती अहिंसामें श्रद्धा रखना, उसके पालनमें तत्पर रहना और उसका प्रचार करते रहना, यह स्ववात्सल्य है। सम्यग्दृष्टि स्व-वात्सल्यका पालन तो करता ही है, साथ ही पर-वात्सल्यके लिए सदा उद्यत रहता है और धर्म या समाजके ऊपर संकट आनेपर तन, मन और धनसे, जैसे भी संभव होता है, उसे दूर करने में निरन्तर प्रयत्नशील रहता है और समय आने पर अपना सर्वस्व न्योछावर कर देता है। ८प्रभावना-अंग अज्ञानतिमिरव्याप्तिमपाकृत्य यथायथम् । जिनशासनमाहाल्यप्रकाशः स्यात्प्रभावना ॥२२॥ आत्मा प्रभावनीयो रत्नत्रयतेजसा सततमेव । दानतपोजिनपूजाविद्यातिशयैश्च जिनधर्मः ॥२३॥ संसारमें फैले हुए अज्ञानान्धकारके प्रसारको अपनी शक्तिके अनुसार सर्व सम्भव उपायोंसे दूर कर जैन शासनके माहात्म्यको प्रकाशित करना प्रभावना कहलाती है। अतएव सम्यग्दृष्टि पुरुष निरन्तर सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप रत्नत्रय-तेजसे अपनी आत्माको प्रभावमय बनावे । तथा दान, तप, जिनपूजा और विद्याके अतिशयद्वारा जिनधर्मकी प्रभावना करे ॥२२-२३॥ :

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