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जैनधर्मामृत
कलङ्कके शुद्ध करनेको उपगृहन अंग कहते हैं । इस अंगका दूसरा नाम उपहण भी है, जिसका अर्थ वृद्धि करना होता है। अतएव मुक्तिके मार्गपर चलनेवाले पुरुषको उत्तम क्षमा, मादव, सत्य, शौच आदि गुणोंकी भावनाओंसे अपने धर्मको सदा बढ़ाते रहना चाहिए और आत्म-धर्मकी या अपने गुणोंकी वृद्धि के लिए यह भी आवश्यक है कि वह परके दोषोंका निगृहन करे, उन्हें प्रकट न होने दे, और अपने मुखसे कभी दूसरोंके दोप न कहे। सारांश यह कि अपने गुणोंको बढ़ानेकी अपेक्षा इसे उपवृंहण अंग कहते हैं और दूसरेके दोषोंको ढाँकने या कमसे कम अपने मुखसे उन्हें प्रकाशित न करनेकी अपेक्षा इसे उपगृहन अंग कहते हैं।
६ स्थितिकरण-अंग दर्शनाच्चरणाद्वापि चलतां धर्मवत्सलैः। प्रत्यवस्थापनं प्राज्ञैः स्थितीकरणमुच्यते ॥१८॥ कामक्रोधमदादिपु चलयितुमुदितेषु वर्त्मनो न्यायात् ।
श्रुतमात्मनः परस्य च युक्त्या स्थितिकरणमपि कार्यम् ॥१६॥ जीवोंके सम्यग्दर्शनसे या सम्यकचारित्रसे चलायमान होनेपर धर्मप्रेमियोंके द्वारा पुनः उसमें उन्हें अवस्थित करनेको ज्ञानिजन स्थितिकरण अंग कहते हैं । अतएव काम, क्रोध, मद आदिके उदय होनेके कारण न्याय-मार्ग अपने या परके चल-विचल होने पर युक्तिसे स्व और परका स्थितिकरण करना चाहिए ॥१८-१९॥
विशेषार्थ-जब कोई मनुप्य अपनी परिस्थितियोंसे विवश होकर आजीविकाके नष्ट हो जानेपर, अथवा काम-विकार, क्रोध, अहङ्कार आदिके उदय होनेपर अपने धर्मसे गिरकर मिथ्याधर्मको