Book Title: Jain Dharmamruta
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 42
________________ 7 प्रथम अध्याय अप्रमत्तादयः सर्वे यावत्क्षीणकषायकाः । उत्तमा यतयः शान्ताः प्रभवन्त्युत्तरोत्तरम् ॥१६॥ २६ - जघन्य, मध्यम और उत्तमके भेदसे अन्तरात्मा तीन प्रकारका है। इनमें असंयत सम्यग्दृष्टिको जघन्य अन्तरात्मा कहते हैं । व्रत धारी गृहस्थ एवं महाव्रती किन्तु प्रमादी साधु इन दोनोंका मध्यम अन्तरात्मा कहते हैं । इससे ऊपर अप्रमत्त संयतसे लेकर क्षीणकषाय संयत तकके सभी शान्त स्वभावी ध्यानस्थ मुनियोंको उत्कृष्ट अन्तः रात्मा कहते हैं ॥ १८-१६॥ विशेषार्थं - जिसे आत्म-साक्षात्कार हो जाता है उसे अपने आत्माकी दृढ़ प्रतीति हो जाती है, इस कारण उसकी बहिर्मुखी प्रवृत्ति दूर होकर अन्तर्मुखी हो जाती है । अन्तर्मुखी प्रवृत्ति हो जाने पर भी जो अपनी परिस्थितियोंके वश बाहिरी पदार्थों का सम्बन्धविच्छेद नहीं कर सकता, धन- गृहादिको एवं कुटुम्बी - जनों को पर जानते हुए भी उन्हें छोड़नेमें अपने आपको असमर्थ पाता है, हिंसादि करने, झूठ बोलने और चोरी आदि करनेको बुरा जानता हुआ भी उन्हें करनेके लिए विवश होता है उसे जघन्य अन्तरात्मा कहते हैं । उसकी प्रवृत्ति बाहिरसे भले ही भली न दिखे, पर भीतरसे उसे अपने बुरे कार्यों पर भारी ग्लानि होने लगती है और मन-ही-मन वह पश्चात्ताप करता है तथा अनुचित कार्योंको नहीं करनेका संकल्प भी करता है; पर वह अपने संकल्पको पूरा करने में सफल नहीं हो पाता । ऐसी मनोवृत्तिवाले आत्म-साक्षात्कारी जीवको जैनधर्मकी परिभाषा में असंयत सम्यग्दृष्टि या जघन्य अन्तरात्मा कहते हैं । वह सभी लौकिक कार्योंको करते हुए भी उनमें आसक्त .

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