Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 03
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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जैन आचार का अन्य आचार के साथ तुलनात्मक अध्ययन करना भी एक अत्यन्त रोचक विषय है। आचार्य सिद्धसेन लिखते हैं कि
प्राक्कथन
" सुनिश्चितं नः परतंत्रयुक्तिषु
स्फुरन्ति याः काश्चन सूक्तसंपदः । तवैव ताः पूर्वमहार्णवोत्थिताः जगत्प्रमाणं जिनवाक्यविप्रुषः ।। ""
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अर्थ- हे ऋषभदेव ! मेरा यह दृढ़ निश्चय है कि अन्य दर्शनों में भी जो कोई उचित बातें (सूक्तसंपदा) हैं वे आपके ही महासागर से उछलकर गई हुई हैं, अतः वास्तव में केवल आपके ही वाक्य विद्वानों के लिए प्रमाण हैं।
जैनदर्शन के उद्भट विद्वान डॉ. कमलचन्द सोगाणी की कृति 'जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त' का यह तीसरा खण्ड मुख्य रूप से जैन एवं जैनेतर आचारशास्त्र के तुलनात्मक अध्ययन हेतु ही समर्पित है। इसमें जैन आचारशास्त्र का उपनिषद्, गीता, बौद्ध एवं पाश्चात्य दर्शनों के आचारशास्त्र के साथ साम्य-वैषम्य देखने का शोधपूर्ण प्रयास किया गया है। आश्चर्य होता है कि उन सबके बीच भारी समानता दृष्टिगोचर होती है। विशेष रूप से उपनिषदों का
1. सिद्धसेन द्वात्रिंशिका, 1/30
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