Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 03
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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जैनधर्म में भी रहस्यात्मक मार्ग पर चलने के लिए गुरु के महत्त्व की उपेक्षा नहीं की गई है। वास्तविक अर्थ में आचार्य गुरु हैं। कुन्दकुन्द के भावपाहुड के अनुसार आत्मा के बारे में गुरु से जानकर उस पर ध्यान करना चाहिए।
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आध्यात्मिक जीवन के प्रेरक
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उपनिषद् और भगवद्गीता में उल्लिखित हम ऐसे प्रेरकों को समझायेंगे जो अमरत्व की प्राप्ति के लिए प्रेरणा देते हैं। प्रथम, सांसारिक वैभव की अनित्यता का प्रेरक उस समय कार्यकारी हुआ जब नचिकेता मृत्यु के देवता के प्रलोभन देने पर भी सांसारिक वस्तुओं को अस्वीकृत कर देता है। वह घोषणा करता है कि ये क्षणभंगुर वस्तुएँ दीर्घ जीवन के होने पर भी निरर्थक सिद्ध होती हैं। परिणामस्वरूप इनसे असंतोष ही उत्पन्न होता है।10° बृहदारण्यकोपनिषद् में मैत्रेयी पृथ्वी के धन-वैभव की अपेक्षा को अधिक चाहती है, क्योंकि वैभव उसको शाश्वत जीवन प्रदान नहीं कर सकता। 101 मैत्री उपनिषद् संसार की नश्वरता को चित्रित करता है। उसके अनुसार संसार की वस्तुएँ, समुद्र, पर्वत आदि सभी नश्वर हैं। ऐसे जगत में इच्छाओं के पीछे दौड़ने से क्या लाभ है ? 102 उसी प्रकार गीता कहती है कि इन्द्रिय-विषय दुःख का स्रोत होते हैं, उनका प्रारंभ और अंत होता है; अतः ज्ञानी आदमी उनमें स्थायित्व अनुभव नहीं करता है। 103
99.
भावपाहुड, 64
100. कठोपनिषद्, 1/1/23, 24, 25, 26, 27
101. बृहदारण्यकोपनिषद्, 2/4/2
102.
Maitri-Upanisad, 1/4 (Translation vide 'Principal
Upanisads'
103. भगवद्गीता, 2/14, 5/22
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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