Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 03
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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आसक्ति त्याग देता है जिसके फलस्वरूप वह मोक्ष प्राप्त कर लेता है। इसके विपरीत जिसकी बुद्धि व्याकुल है और आत्मा में स्थित नहीं है वह अज्ञानवश बाहरी वस्तुओं को संतोष देनेवाला मानता है;87 गाँव
और जंगल को निवास स्थान मानता है;88 तपों के कारण सुन्दर शरीर को प्राप्त करने की इच्छा करता है और इस तरह मोक्ष प्राप्त करने में असफल हो जाता है। ... तृतीय, सुप्त मनुष्य अपने आपको कर्ता मानता है यद्यपि शारीरिक क्रियाएँ. 'प्रकृति' से उत्पन्न होती हैं। जाग्रत मनुष्य अपने आपको कर्ता नहीं मानता। वह अपने आपको कर्मों का अकर्ता मानता है। उसके अनुसार सर्वोच्च आत्मा सब प्राणियों में निवास करती है; वह पुरुष और प्रकृति में भेद करता है।
जैनधर्म के अनुसार आत्मा लोकातीत दृष्टिकोण से शुद्ध भावों का कर्ता होता है और पुद्गल कर्मों से उत्पन्न क्रियाओं द्वारा प्रभावित नहीं होता है। लौकिक दृष्टिकोण से आत्मा पुद्गल कर्मों से उत्पन्न
84. समाधिशतक, 42 85. समाधिशतक, 71 86. . समाधिशतक, 49 87. समाधिशतक, 60 88. समाधिशतक, 73 89. समाधिशतक, 42 90. समाधिशतक, 71 91. भगवद्गीता, 3/27, 18/16
भगवद्गीता, 13/31, 32 93. भगवद्गीता, 13/27 94. . भगवद्गीता, 13/23
92.
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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