Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 03
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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(4) सम्मकम्मन्त (सम्यक् -कर्मान्त), (5) सम्म-आजिव (सम्यगाजीव), (6) सम्मवायाम (सम्यक्-व्यायाम), (7) सम्मसति (सम्यक्-स्मृति), (8) सम्मसमाधि (सम्यक्-समाधि)। (1) सम्मदिट्ठि (सम्यक्-दृष्टि)-सम्यक्-दृष्टि का अर्थ है चार आर्य सत्यों का ज्ञान।38 जैनधर्म के अनुसार सम्यक्चारित्र सम्यक्श्रद्धा से प्रारम्भ होता है किन्तु उसके विषयों में भेद है। (2) सम्मसंकप्प (सम्यक्-संकल्प)- सम्यक्संकल्प के अन्तर्गत आसक्ति का त्याग या दूसरों के प्रति बुरे विचारों का त्याग और दूसरों को नुकसान पहुँचाने का त्याग है।39 (3) सम्मवाच (सम्यक्-वाक्)- सम्यक्-वाणी में झूठ, निन्दा, कटुवचन और व्यर्थ की बातचीत का त्याग सम्मिलित है।340 (4) सम्मकम्मन्त (सम्यक्कर्मान्त)- इसके अन्तर्गत हिंसा, चोरी तथा इन्द्रिय-आसक्ति का त्याग है।41 (5) सम्म-आजिव (सम्यगाजीव)- सम्यगाजीव का अर्थ है अच्छे साधनों से धनार्जन।42 (6) सम्मवायाम (सम्यक्-व्यायाम)सम्यक्-व्यायाम में चार प्रकार के प्रयत्न सम्मिलित है (i) बुराई न आने देना. (ii) वर्तमान बुराई को नष्ट करना (iii) अच्छे विचारों को उत्पन्न करना (iv) अच्छे विचारों और गुणों के प्रति लगन रखना।43 (7) सम्मसति (सम्यक्-स्मृति)- सम्यक्-स्मृति के अन्तर्गत हैंशरीर और मन का स्वभाव, हानिकारक मानसिक स्थितियाँ, कामुकता, संदेह, आलस्य, मन और शरीर की अशान्ति। (8) सम्मसमाधि 338. दीघ-निकाय, 22/4, 5 339. दीघ-निकाय, 22/4, 5 340. दीघ-निकाय, 22/4, 5 341. दीघ-निकाय, 22/4, 5 342. दीघ-निकाय, 22/4, 5 343. दीघ-निकाय, 22/4, 5
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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