Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 03
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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कि शुभ आत्मगत नहीं है, विषयगत है यद्यपि यह व्यक्तियों द्वारा अनुभव किया जाता है। इस प्रकार जैनधर्म के अनुसार अहिंसा वस्तुनिष्ठ शुभ है किन्तु इसकी पूर्ण प्राप्ति रहस्यवादी अनुभव में ही होती है। यह एक प्रकार से नैतिक और आध्यात्मिक अहंवाद है जो प्रोटोगोरस के स्वार्थवादी अहंवाद से बिलकुल भिन्न है। इसके आधार पर आचारशास्त्रीय सिद्धान्त निर्मित हो सकते हैं। स्वार्थवादी अहंवाद के आधार से तो केवल नैतिक अस्त-व्यस्तता ही हाथ लगेगी। -
सुकरात
सुकरात ने अपने युग की बौद्धिक और नैतिक अराजकता से संघर्ष किया और सोफिस्टों की आत्मगत और सापेक्ष नैतिकता का विरोध किया क्योंकि उन्होंने नैतिकता को व्यक्तिगत मौज बना दिया था। सुकरात ने प्रोटोगोरस की दृष्टि को स्वीकार किया। इसके अनुसार शुभ - मानवीय कल्याण है, किन्तु उससे इस बात में भेद था कि यह व्यक्तियों की परिवर्तनशील अभिरुचियों से स्वतन्त्र है। यह आत्मगत नहीं है, वस्तुनिष्ठ है, क्योंकि इसको हम सामान्य धारणाओं के आधार पर समझ सकते हैं और ये धारणाएँ बुद्धि की उपज हैं जो मनुष्य में एक सार्वलौकिक तत्त्व हैं और इसका शुभ के साथ तादात्म्य है। इस तरह से सुकरात के अनुसार ज्ञान उच्चतम शुभ है। इस दृष्टिकोण का परिणाम यह है कि कोई भी व्यक्ति ऐच्छिक रूप से बुरा नहीं होता ।
जैनधर्म सुकरात की दृष्टि को इतना ही स्वीकार करेगा कि सम्यग्ज्ञान चारित्र के लिए आवश्यक है किन्तु वह इस बात को स्वीकार नहीं करता है कि वह आवश्यक रूप से शुभ उत्पन्न करेगा। आत्मा में जो कषायें हैं उनको हम भूल नहीं सकते। ये कषायें मनुष्य के आत्मा के कल्याण को रोकती हैं। सुकरात की दृष्टि है कि ज्ञान शुभ होता है।
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Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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