Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 03
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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कभी नहीं होगा जब सभी व्यक्ति आत्म-नियंत्रित हो जायें। अत: किसी न किसी रूप में राज्य का अस्तित्व रहेगा।
इस प्रकार मानवीय अपूर्णता के कारण राज्य का नियंत्रण व अधिकार आवश्यक रहेगा। निःसन्देह राज्य एक बुराई है किन्तु यह एक आवश्यक बुराई है। राज्य को चाहिए कि वह अपने कार्यों की व्यवस्था इस प्रकार करे कि जिससे वह पूर्ण सामाजिक व्यवस्था के विकास में सहयोगी बन सके। राष्ट्रिय और अन्तर्राष्ट्रिय क्रियाकलापों को अहिंसा
और अनेकान्त के सिद्धान्त पर आधारित होना चाहिए। राज्य मनुष्य के आध्यात्मिक स्वरूप में हस्तक्षेप के बिना उचित प्रकार से कार्य कर सके इसके लिए राज्य सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र से तादात्म्य स्थापित करे। राज्य की नीति ऐसी होनी चाहिए कि वह अहिंसा के सिद्धान्त में दृढ़ श्रद्धा का दिग्दर्शन कराये। इससे राज्य सम्यग्श्रद्धा प्राप्त करेगा जिसके फलस्वरूप सम्यग्ज्ञान उत्पन्न होगा। अनेकान्त का अंगीकार करना सम्यग्ज्ञान है। राज्य की राष्ट्रिय और अन्तर्राष्ट्रिय समस्याओं के समाधान हेतु अहिंसा और अनेकान्त का पालन सम्यक्चारित्र होगा। किसी भी राज्य से घृणा व भय, मनुष्य के किसी भी वर्ग के प्रति घृणा और दूसरे राज्यों के प्रति मायाचार, अपने राज्य को बढ़ाने का लालच और दूसरे राज्यों के धन और स्वतंत्रता को छीनना, धन, शक्ति, विकास और परम्परा का मद- ये सभी राज्य से दूर हटा देने चाहिए क्योंकि ये राज्य के वास्तविक विकास को विकृत कर देते हैं। राज्य को उस अनुशासन का पालन करना चाहिए जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र से प्रसूत होता है। उदाहरणार्थ- आठ सद्गुण सम्यग्दर्शन से उत्पन्न होते हैं, एक सम्यग्ज्ञान से और पाँच सम्यक्चारित्र से निःसृत होते हैं।
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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