Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 03
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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भी पूर्णतया हिंसा को नहीं टाल सकता क्योंकि राज्य-विरुद्ध और समाज-विरुद्ध प्रवृत्तियाँ अस्तित्व में रह सकती हैं। उनके व्यवधान को रोकने के लिए बाहरी नियंत्रण आवश्यक है। हिंसा इच्छापूर्वक नहीं की जायेगी किन्तु यह एक आत्म-सुरक्षा का हथियार रहेगी। बल का प्रयोग करते हुए भी राज्य के लिए यह आवश्यक है कि वह अहिंसा का वातावरण बनाये। यहाँ हम बताना चाहते हैं कि यह सद्गुण केवल मनुष्यों तक ही सीमित नहीं होना चाहिए। किन्तु अन्य प्राणियों को भी इसका लाभ मिलना चाहिए क्योंकि मनुष्येतर प्राणियों की हिंसा अहिंसा की भावना के विरुद्ध है और अमानवीय प्रतीत होती है। नशीली वस्तुओं के प्रयोग पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए और इनके प्रयोग के विरुद्ध सामाजिक चेतना जगायी जानी चाहिए। अहिंसा का गंभीर महत्त्व युद्ध के टालने में है क्योंकि युद्ध ने मनुष्य को सभ्यता के उदयकाल से ही कष्ट दिया है। युद्ध को आवश्यक नहीं समझा जाना चाहिए जैसा कि नित्से, मुसोलिनी और कई दूसरों ने सोचा है। दो विश्वयुद्धों ने भयंकर बर्बादी की है। अन्तर्राष्ट्रिय संस्था की स्थापना और निरस्त्रीकरण की प्रवृत्ति यह बताती है कि युद्ध और हिंसा से अन्तर्राष्ट्रिय विवाद हल नहीं किये जा सकते। राज्यों का आपसी तनाव-निवारण, विश्वशान्ति और मानवीयं कल्याण का उन्नयन अहिंसा के वातावरण के निर्माण से ही हो सकता है। इस तरह से अहिंसा का सिद्धान्त यह बताता है कि बल के स्थान पर सहनशक्ति और आपसी सहयोग का प्रयोग किया जाना चाहिए।
द्वितीय, राज्य में आपसी संबंध सत्य के आधार पर होना चाहिए। अतिशयोक्ति, छिद्रान्वेषण और अशोभनीय भाषा के प्रयोग को राज्य के व्यवहार में से निष्कासित किया जाना चाहिए।
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Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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