Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 03
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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को अन्तर्राष्ट्रिय स्तर पर समझने से अहिंसा का दृष्टिकोण विकसित हो सकेगा।
व्यक्ति और समाज की जैन धारणा, राज्यविहीन समाज की संभावना और राज्य के वे सद्गुण जिनसे राष्ट्रिय और अन्तर्राष्ट्रिय समस्याओं का समाधान संभव है - इनका विचार करने के पश्चात् अब हम जातिवाद के प्रति जैनधर्म के दृष्टिकोण पर विचार करेंगे। जैनधर्म जातिवाद को घृणा की दृष्टि से देखता है। एक जाति की दूसरी जाति से उच्चता जैन आचार से संगत नहीं है। जातिवाद एक बुराई है और यह घृणा और अहंकार की कषाय पर आश्रित है। ये दोनों ही तीव्र कषायें हैं, अतः वे पाप हैं। जैन आगमों में ऐसे संदर्भ प्राप्त होते हैं जिनके अनुसार गुण जाति का निर्णायक होता है न कि जन्म | आत्मानुभव से जाति का कोई भी संबंध नहीं है। उत्तराध्ययन का कथन है कि हरिकेशी जो अछूत था उसने तपों के पालन से मुनि-जीवन प्राप्त किया। शुभ चारित्र ही सम्मान का विषय है, न कि जाति । जातिवाद काल्पनिक है और असत्य में स्थापित है। आचार्य अमितगति का कथन है कि जातिवाद किसी भी प्रकार की गुणयुक्त प्राप्ति कराने में असमर्थ है। जीवन में योग्यता सत्य, तप, ध्यान और स्वाध्याय से उत्पन्न होती है । चारित्र में भेद से ही जाति में भेद होता है । जाति केवल एक ही है, वह है - मनुष्यता। जीवन में योग्यता जाति का आधार होती है और जाति का अहंकार सम्यग्जीवन को नष्ट कर देता है। यदि आधुनिक प्रजातंत्र को सफल होना है तो जातिवाद समाप्त होना चाहिए। जातिवाद और प्रजातंत्र एक-दूसरे के विरोधी हैं।
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Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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