Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 03
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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विभाजित है। परवर्ती पुद्गल (भौतिक पदार्थ), धर्म (गति का सिद्धान्त), अधर्म (स्थिति का सिद्धान्त), आकाश (स्थान) और काल (समय) में विभाजित है। अत: यथार्थता द्वैतवादी है और अनेकत्ववादी भी।
अनेकता का यदि वस्तुगत और संश्लेषात्मक दृष्टिकोण से विचार किया जाये तो तात्त्विक अनेकता सत् की एकता के साथ भी बंधी हुई है। छह द्रव्य कभी भी अपने मूल स्वभाव को नहीं छोड़ते हैं। पुद्गल अणु से स्कन्ध अवस्था तक चार इन्द्रियगुण- स्पर्श, रस, गंध और वर्ण सहित होते हैं। यद्यपि अणु ध्वनिरहित होता है, तो भी परमाणुओं के संयोग से ध्वनि पैदा हो सकती है जब वे परमाणुओं के दूसरे संयोग के संपर्क में आते हैं। इस प्रकार ध्वनि भौतिक होती है।
. आकाश का विशेष गुण सभी द्रव्यों को आवास प्रदान करना है। धर्म और अधर्म द्रव्य गति और स्थिति में क्रमश: उदासीन निमित्त होते हैं। ये दोनों सिद्धान्त लोकाकाश और अलोकाकाश की सीमा के विभाजन के लिए उत्तरदायी हैं। काल द्रव्यों में परिवर्तन की अवस्था को प्रकट करता है।
.. आत्मा (जीव) जो चेतना युक्त है वह सब द्रव्यों में उच्चतम महत्त्व रखता है और सब तत्त्वों में उच्चतम मूल्यवाला है। संसारी आत्माएँ अनादिकाल से कर्मों से बंधी हुई है। वे स्वयं के द्वारा किये हुए शुभं और अशुभ क्रियाओं के भोक्ता होते हैं तथा ज्ञाता और दृष्टा भी माने गये हैं। वे शरीर परिमाण की सीमा तक फैलते हैं, संकोचविस्तार के गुणवाले होते हैं, उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य के त्रयी स्वभाव से संबंधित होते हैं और उनमें चेतना का विशिष्ट गुण होता है। मुक्त आत्मा सभी कर्मों से स्वतंत्र होता है और अनन्त ज्ञान, अनन्त आनन्द आदि को प्रकट करता है।
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