Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 03
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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दसवाँ अध्याय सारांश
परम्परा के अनुसार जैनधर्म अपने उद्गम के लिए ऋषभदेव का ऋणी है जो चौबीस तीर्थंकरों में प्रथम हैं। यजुर्वेद और भागवतपुराण इस दृष्टि का समर्थन करते हैं कि ऋषभदेव जैनधर्म के संस्थापक थे। जैनदर्शन और जैन आचार का चिन्तन वर्तमान स्थिति में हमारे ज्ञान को ऐतिहासिक रूप से तीर्थंकर पार्श्वनाथ तक ले जाता है। पार्श्वनाथ के धर्म को चातुर्याम धर्म कहा गया है जब कि महावीर द्वारा जो स्पष्टीकरण किया गया वह था पार्श्वनाथ के चार व्रतों में पाँचवें व्रत ब्रह्मचर्य की स्पष्ट रूप से वृद्धि। चौबीसवें तीर्थंकर महावीर ने स्पष्टीकरण के द्वारा अपने पूर्ववर्ती अर्थात् तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ के धर्ममत को उन्नत किया और नया धर्ममत स्थापित नहीं किया। प्रो. घाटगे का कथन है कि महावीर एक विद्यमान धर्म के सुधारक के रूप में रखे जा सकते हैं“ब्रह्मचर्य व्रत को जोड़ना, नग्नता का महत्त्व और दार्शनिक सिद्धान्तों की अधिक योजनाबद्ध व्यवस्था- इनके लिए महावीर के सुधारवादी उत्साह को श्रेय दिया जा सकता है।" महावीर के निर्वाण के पश्चात् जैनधर्म दो सम्प्रदायों में विभक्त हो गया। समय बीतने के साथ ही दोनों सम्प्रदायों में नये सम्प्रदायों का उदय हो गया। जिनमें से यापनीयसंघ के मुनि दो प्रमुख सम्प्रदायों में सामञ्जस्य स्थापित करानेवाले कहे जा सकते हैं। डा. उपाध्ये का कथन है कि जैन आचारशास्त्र अपने उद्भव में मागधीय है।
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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