Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 03
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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जैन आचार जैन तत्त्वमीमांसा पर आश्रित है। द्रव्य के स्वभाव को केवल नित्य मानना या केवल अनित्य मानना जैनधर्म के अनुसार आचारशास्त्रीय चिन्तन का विनाशक है और यह दृष्टि प्रागनुभविक और निरपेक्षवादी प्रवृत्ति पर आश्रित है। परिणामस्वरूप जैन चिन्तकों की विचारधारा के अनुसार नित्यता जितनी तात्त्विक है उतनी ही अनित्यता भी है यह चिन्तन 'अनुभव' (Experience) पर आश्रित है। द्रव्य वह है - जो सत् ( अस्तित्व) है या एकसमय में वह उत्पत्ति ( उत्पाद), विनाश (व्यय) तथा स्थायित्व (ध्रौव्य) से युक्त है या गुण और 'पर्याय' का आधार है। 'पर्याय' विशेषतया जैनदर्शन की ही परिकल्पना है। सत् इन सभी लक्षणों को अपने में सम्मिलित कर लेता है । द्रव्य और गुण, द्रव्य और पर्याय तथा द्रव्य और सत् में संबंध अभेद में भेद का है।
अनेकान्तात्मक द्रव्य को जानने का साधन है- प्रमाण और नय। पूर्ववर्ती अर्थात् प्रमाण द्रव्य को समग्र रूप से जानता है जब कि परवर्ती अर्थात् नय समग्रता में से केवल एक पक्ष को जानता है और दूसरे पक्ष को दृष्टि में रखता है । अनेकान्तात्मक द्रव्य का बिना किसी विकार के संप्रेषण किया जा सके इसके लिए प्रत्येक कथन के पहिले 'स्यात्' शब्द का प्रयोग आवश्यक है। 'स्यादवाद' का यह सिद्धान्त जैनदर्शन की परिकल्पना है। प्रत्येक कथन के पूर्व 'स्यात्' शब्द का प्रयोग किया जाना चाहिए। जैन दृष्टिकोण से 'स्यात्' शब्द को संदेहवादी नहीं गिना जाना चाहिए, दूसरे गुणों के लिए जो कथन नहीं कहे गये हैं उनके लिए वह प्रकाश स्तम्भ है।
जैनदर्शन के अनुसार सम्पूर्ण अस्तित्व शाश्वत, स्वयंभू और सह-अस्तित्ववाले जीव और अजीव की दो स्वतंत्र श्रेणियों में
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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