Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 03
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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पापों में यह सिद्धान्त लागू नहीं किया जाता है जैसे- व्यभिचार, चोरी आदि क्योंकि ये अरस्तु के अनुसार अपने आप में ही अशुभ हैं।
__ जैन आचार के अनुसार अरस्तु का मध्य मंद कषाय है। सद्गुण का निर्णय बुद्धिमान व्यक्ति का निर्णय कहा जा सकता है। जैनधर्म के अनुसार अरिहंत, आचार्य, उपाध्याय आदि के निर्णय भी सद्गुण की कोटि में कहे जा सकते हैं किन्तु जैनधर्म ने हमें अहिंसा का मापदण्ड सद्गुणों के निर्णय के लिये दिया है। प्लेटो के द्वारा वर्णित सद्गुण मुनि के जीवन में पूर्णतया किन्तु गृहस्थ के जीवन में आंशिक रूप से पालन किये जा सकते हैं। अणुव्रतों का जीवन पूर्ण सामाजिक व्यवस्था के लिए पर्याप्त है किन्तु व्यक्ति की पूर्णता के लिए महाव्रतों का जीवन अनिवार्य है।
सद्गुणों का वर्गीकरण - जैनधर्म के अनुसार मुख्य सद्गुण इस प्रकार हैं- (1) सम्यग्दर्शन (आध्यात्मिक रूपान्तरण), (2) स्वाध्याय, (3) अहिंसा, (4) सत्य, (5) अस्तेय, (6) ब्रह्मचर्य, (7) अपरिग्रह, (8) ध्यान और (9) भक्ति। जैनधर्म के अनुसार विस्तृत सद्गुण इस प्रकार हैं(1) व्यक्तिगत गुण
(i) सरागसंयम (अशुभ प्रवृत्ति का त्याग), (ii) शौच, (ii) मार्दव," (iv) आर्जव," (v) सत्य, (vi) अस्तेय," (vii) ब्रह्मचर्य,15
9... सर्वार्थसिद्धि, 6/12 10. सर्वार्थसिद्धि, 9/6 11. सर्वार्थसिद्धि, 9/6 12. सर्वार्थसिद्धि, 9/6 13. सर्वार्थसिद्धि, 9/6 . 14. सर्वार्थसिद्धि, 7/1 15. सर्वार्थसिद्धि, 7/1
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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