Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 03
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 96
________________ (सम्यक्-समाधि)- ध्यान की चार अवस्थाएँ मानी गयी हैं(i) प्रथम अवस्था में साधक कामुकता व बुरी वृत्तियों से अपने आपको दूर करता है तथा चार आर्यसत्यों का वितर्क तथा विचार करता है और वह अनासक्ति से उत्पन्न शांति तथा आनंद का अनुभव करता है। (ii) द्वितीय अवस्था में वह सभी तर्क-वितर्कों का दमन कर देता है और एकाग्रता से उत्पन्न शांति और आनंद का अनुभव करता है। (iii) तीसरी अवस्था में वह ध्यान से उत्पन्न शांति और, आनंद को त्याग देता है और समता की आनन्द चेतना में स्थिर हो जाता है। (iv) चौथी अवस्था में वह शुद्ध आत्मावस्था व समता में प्रवेश कर जाता है और इस अवस्था में सब दुःखों का अन्त हो जाता है। इस अवस्था में निर्वाण की प्राप्ति हो जाती है। समाधि की अवस्था को प्राप्त करने के लिए पञ्चशील अत्यावश्यक है। पञ्चशील के अन्तर्गत अहिंसा, अस्तेय, सत्यभाषण, ब्रह्मचर्य तथा नशा का सेवन न करना सम्मिलित है। इन पञ्चशीलों की तुलना जैनधर्म के पाँच महाव्रतों से की जा सकती है। इसके अतिरिक्त ध्यान की तीन अवस्थाओं की तुलना दो प्रकार के शुक्लध्यान पृथक्त्ववितर्क और एकत्ववितर्क से की जा सकती है। इसमें दूसरे प्रकार के शुक्लध्यान की परिपूर्णता से चौथी अवस्था की तुलना की जा सकती है। इसी को अर्हत् अवस्था या सदेहमुक्ति कहते हैं। विदेहमुक्ति अंतिम दो प्रकार के शुक्लध्यान का परिणाम है। (62) Ethical Doctrines in Jainism Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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