Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 03
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 94
________________ सकती।''333 “यह भाषा में अवर्णनीय है।''334 विनाश के विरोध में समझाने के लिए उसने निषेधात्मक शब्दों में समझाया कि निर्वाण जीवन के दुःखों का अन्त है और राग, द्वेष और मोह से बचाव है।35 यह शान्त, संतुलन और कषाय रहितता की अवस्था है। बौद्धगुरु नागसेन ने ग्रीक राजा (मिलिन्द) को निर्वाण का आनन्ददायक स्वरूप समझाया।336 जैनधर्म के अनुसार मोक्ष-प्राप्ति का अर्थ है अनन्त ज्ञान, अनन्त आनन्द और अनन्त शक्ति आदि की प्राप्ति। जैनधर्म मोक्ष के स्वरूप. को बिना किसी दुविधा के समझाता है उसका अर्थ होता है- सांसारिक दुःख का अवरोध और अनन्त आनन्द की प्राप्ति। इस तरह से जैनधर्म और बौद्धधर्म के विचारों में कुछ अन्तर है। ब्राह्मण धर्म का योगी, जैनधर्म का तीर्थंकर और बौद्धधर्म का अर्हत्- सभी एक ही नाव में चल रहे हैं। इतनी समानता होते हुए भी बौद्धधर्म में आत्मा की अस्वीकृति का जैनधर्म से बड़ा भेद है जो आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करता है। चौथे आर्यसत्य का सम्बन्ध दुःख को हटाने से है। बुद्ध के द्वारा अष्टांगिक मार्ग337 प्रस्तावित है। (1) सम्मदिट्ठि (सम्यक्-दृष्टि), (2) सम्मसंकप्प (सम्यक्-संकल्प), (3) सम्मवाच (सम्यक्-वाक्), 333. Radhakrishnan Article , the teaching of Buddha by speech and silence, Hibbert Journal April, 1934 (vide Dutta & Chatterjee, An Introduction to Indian Philosophy, P. 128) 334. History of Philosophy: Eastern and Western, P. 166 335. History of Philosophy: Eastern and Western, P. 167 336. Milinda-panha, (vide Introduction to Indian Philoso phy, P. 128) 337. दीघ-निकाय, 22/5 Ethical Doctrines in Jainism Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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