Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 03
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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द्वेष को त्यागता है, आत्मा को निवास-स्थान मानता है वह शाश्वत गति की ओर गमन करता है। 154 मोक्षपाहुड के अनुसार जो क्रोध, मान, माया और लोभ से मुक्त है, जो परिग्रह, आसक्ति, सांसारिक पापकर्मों से रहित है, जिसने परीषहों को सहन किया है वह मोक्षमार्ग में स्थित है और सर्वोच्च आनन्द को प्राप्त करता है । 155 अतः चारित्र का महत्त्व स्पष्ट हैं।
चारित्र का निषेधात्मक पक्ष- पापों और कषायों का परिवर्जन चारित्र के निषेधात्मक पक्ष का संबंध पापों और कषायों के शुद्धीकरण, इन्द्रियों के जीतने और मन के संयम से है। छान्दोग्योपनिषद् का कथन है कि सुवर्ण की चोरी करनेवाले, मद्यपान करनेवाले और उनकी संगति करनेवाले पतित होते हैं। 156 प्रश्नोपनिषद् का मत है कि जो न तो कुटिल हैं, न झूठ बोलनेवाले हैं और न ही कपटी हैं उनको ब्रह्म की अनुभूति होती है। 157 इस प्रकार चोर, शराबी, व्यभिचारी, झूठे, कपटी और उनकी संगति करनेवाले सभी नष्ट हो जाते हैं।
जैनधर्म के अनुसार आत्मानुभव के मार्ग के यात्री को मद्य, मांस, मधु, हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह का कृत, कारित और अनुमोदना से त्याग करना चाहिए | 158
गीता के अनुसार आसुरी संपदा के अन्तर्गत पाखण्ड, अहंकार, क्रोध, कटुवचन और अज्ञान सम्मिलित हैं। 159 आसुरी वृत्तिवाले प्रवृत्ति
154. योगसार, 48
155. मोक्षपाहुड, 45, 80 156. छान्दोग्योपनिषद्, 5/10/9 157. प्रश्नोपनिषद्, 1/1/16
158.
रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 66 159. भगवद्गीता, 16/4
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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