Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 03
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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स्वीकार करता है।294 अद्वैत वेदान्त ब्रह्मज्ञान के लिए चार पूर्व आवश्यकताएँ प्रतिपादित करता है 295 अर्थात् ( 1 ) शाश्वत और अशाश्वत में विवेक, (2) सांसारिक वस्तुओं में अनासक्ति, (3) शान्ति, संयम, आसक्ति, धैर्य, जागरूकता और श्रद्धा का होना और (4) मोक्ष की इच्छा ।
उपर्युक्त विचारों की जैनदर्शन से तुलना करने पर हम पाते हैं कि केवल सम्यग्ज्ञान के द्वारा सांसारिक जीवन से मुक्ति प्राप्त नहीं की जा सकती किन्तु सम्यक् श्रद्धा और सम्यक्चारित्र इसके साथ जोड़ा जाना चाहिए। दूसरे शब्दों में सम्यग्ज्ञान और सम्यग्श्रद्धा के अतिरिक्त सम्यक्चारित्र भी मोक्ष के साधन के रूप में आवश्यक है । भावपाहुड का कथन है कि आत्मा को गुरु के द्वारा जानकर उस पर ध्यान किया जाना चाहिए | 296 यहाँ यह ध्यान देना चाहिए कि न्याय-वैशेषिक, वेदान्त और पूर्वमीमांसा दर्शन जीवन में आचार प्रक्रिया के लिए उपनिषद्, गीता और योग दर्शन पर आश्रित हैं। अब हम योग के अष्टांग मार्ग और बुद्ध के चार आर्यसत्यों पर विचार करेंगे।
योग का अष्टांग मार्ग
आत्मा का ईश्वर या निरपेक्ष सत्ता से किसी प्रकार का संयोग योग नहीं है किन्तु इसका अभिप्राय है चित्तवृत्तियों का निरोध या पुरुष और प्रकृति में भेद297 या पुरुष का मूल स्वभाव में स्थित होना । 298 ये तीनों अभिप्राय एक दूसरे से भिन्न नहीं हैं। दूसरा अभिप्राय जो पतंजलि
294.
295.
296. भावपाहुड, 64
297. योगसूत्र, 2/25, 26
298. योगसूत्र, 1/3, 4/ 34
प्रकरण पञ्जिका, 154-157
Vedanta Explained, Vol. I. P. 8
(52).
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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