Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 03
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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अविद्या के बारे में आगे विचार करेंगे। यहाँ हम केवल यह बता देना चाहते हैं कि बौद्ध दर्शन के अनुसार अविद्या का संबंध दुःख को सुख मानने में है और क्षणिकता को नित्यता मानने में है।
जैनधर्म के अनुसार सांसारिक जीवन के आधार हैं- मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र। ये तीनों सांसारिक जीवन के लिए उत्तरदायी हैं। मिथ्यादर्शन विपरीत श्रद्धा है; मिथ्याज्ञान विपरीत ज्ञान है
और मिथ्याचारित्र विपरीत चारित्र है। मिथ्याज्ञान संसार का आधार नहीं है किन्तु मिथ्यादर्शन है अर्थात् शरीर से भिन्न आत्मा में अश्रद्धा है। इस अश्रद्धा के कारण ज्ञान और चारित्र विपरीत हो जाते हैं अर्थात् सम्यग्दर्शन के अभाव में गंभीर ज्ञान और अनुशासनात्मक चारित्र ऊँचाई पर ले जाने में असमर्थ है। अविद्या जो मिथ्याज्ञान का पर्यायवाची है वह संसार का कारण है किन्तु यह दृष्टिकोण जैनदर्शन को मान्य नहीं है। मोक्ष-प्राप्ति के साधन
सभी जैनेतर भारतीय दर्शन मोक्ष की प्राप्ति के लिए उचित ज्ञान को समान रूप से महत्त्व देते हैं। यद्यपि पूर्वमीमांसा कुछ क्रियाओं के करने को अतिरिक्त महत्त्व देते हैं। न्याय-वैशेषिक के अनुसार सोलह पदार्थों288 का ज्ञान मोक्ष के लिए आवश्यक है। सांख्य-योग के अनुसार
288.
सोलह पदार्थ हैं- (1) प्रमाण (प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द), (2) प्रमेय (आत्मा, शरीर, इन्द्रिय, अर्थ- भोग की जानेवाली वस्तुओं का समूह, बुद्धि- भोगज्ञान, मन, प्रवृत्ति-मन,वचन तथा शरीर का व्यापार, दोष- जिसके कारण अच्छे या बुरे कामों में प्रवत्ति होती है, प्रेत्यभाव-पुनर्जन्म, फल-सुख-दुःख का संवेदन, दुःखइच्छाविघातजन्य पीड़ा और अपवर्ग-दुःख से आत्यन्तिक निवृत्ति), (3) संशय, (4) प्रयोजन, (5) दृष्टान्त, (6) सिद्धान्त, (7) अवयव, (8) तर्क, (9) निर्णय, (10) वाद, (11)जल्प, (12) वितण्डा, (13) हेत्वाभास, (14) छल, (15) जाति
और (16) निग्रहस्थान। (देखें न्याय सूत्र, 1.1.1; 1.1.3; 1.1.9, भारतीय दर्शन, पृष्ठ-202)
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Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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