Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 03
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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ने योग शब्द को दिया है वह उपर्युक्त आदर्श की प्राप्ति की प्रक्रिया को सूचित करनेवाला है।299 जैनदर्शन में योग के लिए समानार्थक अभिव्यक्ति उच्चतम स्थिति के अर्थ में शुद्धोपयोग है। जिसमें शुभ-अशुभ भाव रुक जाते हैं और आत्मा अपने मूल स्वभाव में स्थित हो जाती है। उच्चतम आरोहण के लिए अनुशासन को चारित्र कहा जाता है जो अर्थ भी योग को दिया गया है। वह अनुशासन जो उच्चतम ऊँचाईयों का आरोहण करने के लिए आवश्यक है वह वैराग्य और अभ्यास है।300 वैराग्य निषेधात्मक है और अभ्यास सकारात्मक। पूर्ववर्ती का अभिप्राय है जगत की क्षणिक वस्तुओं से पूर्णतया अलग हो जाना और परवर्ती का अभिप्राय है आत्मा को यौगिक मार्ग पर लगाना। जैनाचार्यों द्वारा बतायी गयी बारह अनुप्रेक्षाएँ301 वैराग्य उत्पन्न करने के लिए पर्याप्त है। वैराग्य
और अभ्यास यौगिक प्रक्रिया का संक्षेप है। पतंजलि योग की आठ प्रक्रिया बताते हैं जिनका पालन करने पर मोक्षरूपी फल प्राप्त हो जाता है।302 वे हैं- (1) यम, (2) नियम, (3) आसन, (4) प्राणायाम, (5) प्रत्याहार, (6) धारणा, (7) ध्यान और (8) समाधि।303
(1) यम- यम:04 पाँच प्रकार का है- (1) अहिंसा, (2) सत्य, (3) अस्तेय, (4) ब्रह्मचर्य और (5) अपरिग्रह। पतंजलि का कथन है कि ये यम महाव्रत बन सकते हैं305 जब इसमें अणुव्रतों की 299. योगसूत्र और वृत्ति, 2/1 300. योगसूत्र, 1/12 301. तत्त्वार्थसूत्र, 9/7 302. योगसूत्र, भाष्य और वृत्ति, 2/28 303. योगसूत्र, 2/28 304. योगसूत्र, 2/30 305. योगसूत्र, 2/31
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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