Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 03
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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और निवृत्ति में भेद नहीं जानते हैं, उनमें न शौच, न आचार और न सत्य ही होता है।160 कठिनता से पूर्ण होनेवाली कामनाओं में लीनता और मोह के वशीभूत अनुचित विचार, अशुद्ध संकल्पों से कार्य करना- ये सभी आसुरी सम्पदावाले हैं। सैकड़ों आशापाशों से बंधे हुए, कामक्रोध में फंसे हुए और अनुचित तरीकों से इच्छाओं की पूर्ति के लिए धन का संग्रह करते हुए, अपने आपको राजा मानते हुए, धन और जन्म का अहंकार करते हुए, लोभी और हिंसक बने हुए मनुष्य- सभी आसुरी सम्पदा के अन्तर्गत हैं।161 ऐसे लोग जगत को बिना आधार के मानते हैं.
और ईश्वर को अयथार्थ मानते हैं। वे परमसत्ता से जो उनमें और दूसरों में छिपी हुई हैं घृणा करते हैं।162 यदि विकास करना है तो उपर्युक्त सभी पाप प्रवृत्तियाँ त्यागी जानी चाहिए।
जैनधर्म के अनुसार अशुभ आस्रव की तुलना आसुरी संपदा से की जा सकती है। चार प्रकार की संज्ञा,163 तीन प्रकार की अशुभ लेश्या, इन्द्रिय-आसक्ति, आर्त व रौद्र ध्यान, ज्ञान का अनुचित प्रयोग, मोह164
और तेरह प्रकार की कषायें,165 और हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह अशुभ आस्रव के अन्तर्गत सम्मिलित हैं। छह लेश्याओं166 में प्रथम तीन अशुभ हैं और अंतिम तीन शुभ हैं। अब हम तीन प्रकार की
160. भगवद्गीता, 16/7, 10, 11 161. भगवद्गीता, 16/12, 13, 14, 15 162. भगवद्गीता, 16/8, 18 163. आहार, भय, मैथुन और परिग्रह 164. पञ्चास्तिकाय, 40 165. सर्वार्थसिद्धि, 7/9 क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति,
शोक, भय, जुगुप्सा, पुरुषवेद, स्त्रीवेद और नपुंसकवेद 166. गोम्मटसार जीवकाण्ड, 493
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Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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