Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 03
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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न्याय-वैशेषिक के अनुसार आत्मा स्वतंत्र अस्तित्व रखती है जिसमें इच्छा, द्वेष, संकल्प, सुख-दुःख और ज्ञान के गुण सम्मिलित हैं। ये गुण आत्मा में शाश्वत रूप से नहीं रहते हैं किन्तु जब आत्मा शरीर धारण करती है तब ही ये उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार चेतना या ज्ञान आदि आत्मा के आगन्तुक गुण हैं,268 परिणामस्वरूप मोक्ष की अवस्था में ये लुप्त हो जाते हैं। नैयायिक उद्योतकर का कथन है कि शाश्वत सुख के अनुभव के लिए मोक्ष में शाश्वत शरीर की आवश्यकता है क्योंकि अनुभव बिना शरीर के संभव नहीं है।269 उद्योतकर के कथन से यह परिणाम निकलता है कि मुक्ति शरीर के रहते संभव नहीं है। किन्तु उद्योतकर और वात्स्यायन दोनों ही जीवनमुक्ति के अनुरूपं एक स्थिति को मानते हैं अर्थात् ऐसा व्यक्ति शरीर-रहित तो नहीं होगा किन्तु संकुचित प्रेम और घृणा उसके जीवन में समाप्त हो जायेगी, साथ में स्वार्थपूर्ण क्रिया भी।270 यहाँ यह कहना उचित होगा कि इस मुक्ति की निषेधात्मक धारणा को परवर्ती नैयायिकों जैसे भासर्वज्ञ आदि ने भी अमान्य कर दिया है और इन सभी ने सकारात्मक आनन्द की अवस्था को स्वीकार किया है।271
__ पूर्व मीमांसक जैमिनी और शबर मोक्ष की समस्या से संबंधित नहीं रहे किन्तु उन्होंने स्वर्ग को ही मनुष्य का उच्चतम उद्देश्य माना। परवर्ती मीमांसक कुमारिल और प्रभाकर ने मोक्ष को जीवन का आदर्श
268. न्यायसूत्र-भाष्य-वर्तिका, 1/1, 10 269. न्यायसूत्र-भाष्य-वर्तिका, 1/1, 4, 58 270. Outlines of Indian Philosophy, P.266 271. न्यायसार, पृष्ठ 39, 40, 41; तुलना. न्यायसूत्र-भाष्य-वर्तिका, 1/1,
4, 58
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Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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