Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 03
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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अज्ञान-ग्रन्थि खुल जाती है जो अपने हृदय में स्थित परम ब्रह्म को जानता है। कठोपनिषद् का कथन है कि हमें आत्मा को अपने शरीर से अलग करना चाहिए जैसे कोई तलवार को उसकी म्यान से अलग करता है। कौषीतकी उपनिषद् का कथन है कि जैसे एक चिड़िया घोसले में रहती है उसी प्रकार यह चेतन आत्मा शरीर में रहता है।
समयसार का कथन है कि (सुप्त) मनुष्य बिना परमार्थ के जाने तप और व्रत का पालन करते हैं अत: उनके तप और व्रत बचकाने होते हैं। वे नहीं जानते कि पुण्य भी संसार में आवागमन का कारण है और वे उसीकी आकांक्षा करते रहते हैं। योगीन्दु के योगसार के अनुसार वे आत्माएँ बहुत विरल होती हैं जो यह जानती हैं कि जिनदेव का निवास शरीर के अन्दर है; वह न तो तीर्थस्थानों में है और न ही मंदिरों में है।2 अमितगति का कथन है कि हमको आत्मा से शरीर को अलग करना चाहिए। कार्तिकेय के अनुसार शरीर बाहरी आवरण की तरह होता है।
. भगवद्गीता के अनुसार प्रथम, जाग्रत मनुष्य शरीर के परिवर्तन से व्याकुल नहीं होता है। वह सोचता है कि जैसे एक व्यक्ति कपड़े बदलता है उसी प्रकार सदेह-आत्मा पुराने शरीर को छोड़ता है और नया
68. मुण्डकोपनिषद्, 2/1/10 69. कठोपनिषद्, 2/3/17 70. . कौषीतकी उपनिषद्, 4/20 71. समयसार, 152, 154 72. योगसार, 42, 45 73. अमितगति सामायिक पाठ, 2 74. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 316
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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