Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 03
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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- इस प्रेरक की तुलना जैनदर्शन में प्रतिपादित अनित्यता के प्रेरक से की जा सकती है। उत्तराध्ययन'04 का कथन है कि हमें एक क्षण के लिए भी प्रमाद नहीं करना चाहिये क्योंकि मनुष्य का जीवन स्थायी नहीं है। इस जीवन की समाप्ति ओस की बूंद या पेड़ के उस पत्ते की तरह होती है जो जमीन पर गिर जाता है। इसके अतिरिक्त इन्द्रिय-सुख अनित्य होने के कारण मनुष्य को उसी तरह तिलांजलि दे देते हैं जिस प्रकार एक पक्षी फल के अभाव में उड़ जाता है और पेड़ को छोड़ देता है।105 भगवती आराधना का कथन है कि भोग और उपभोग की सभी वस्तुएँ बर्फ के ढेर की तरह नष्ट हो जाती हैं और प्रतिष्ठा संसार में अविलम्ब चुक जाती है।106 जिस प्रकार बहती हुई नदी का पानी वापस नहीं लौटता उसी प्रकार यौवन एक दफा समाप्त होने के बाद पुन: नहीं लौटता।107 कार्तिकेयानुप्रेक्षा का कथन है कि शरीर पोषित किए जाते हुए भी आवश्यक रूप से बिखर जाता है जैसे बिना पका हुआ मिट्टी का बर्तन पानी भरने के कारण टूट जाता है।108 मित्र, सौन्दर्य, धन और सभी संबंध अस्थायी होते हैं जैसे नवीन आकृति वाले बादलों का समूह या इन्द्रधनुष या बादलों की बिजली।109 आत्मानुशासन के अनुसार राजाओं के भाग्य एक दीपक की लौ की तरह क्षण भर में नष्ट हो जाते हैं। 10
104. उत्तराध्ययन, 10/1, 2 105. उत्तराध्ययन, 13/31 106. भगवती आराधना, 1727 107. भगवती आराधना, 1789 108. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 9 109. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 6, 7 110. आत्मानुशासन, 62
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Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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