Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 03
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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शुभ-अशुभ भावों का कर्ता होता है। योगीन्दु. परमात्मप्रकाश में कहते हैं कि निश्चयनय के अनुसार बंधन और मोक्ष व सुख और दुःख कर्मों के परिणाम है, इसके विपरीत आत्मा का पुण्यरूप और पापरूप होना व्यवहार दृष्टिकोण से न्यायोचित है। आत्मा क्रियाओं का अकर्ता हैजैन दृष्टिकोण से यह बात केवल लोकातीत दृष्टि से उचित है। जाग्रत मनुष्य आत्मा को ज्ञान और श्रद्धा से निर्मित मानता है तथा शाश्वत, स्वतंत्र और शुद्ध मानता है। इस प्रकार जानने से वह मोह की गाँठ को नष्ट कर देता है। वह संसारी वस्तुओं के परिवर्तन से व्याकुल नहीं होता है। एक बात यहाँ ध्यान देने योग्य है कि जैनधर्म के अनुसार जाग्रत मनुष्य सब आत्माओं को सब वस्तुओं में व्याप्त नहीं मानता है। आध्यात्मिक जीवन के लिए गुरु की आवश्यकता
आत्मानुभव के मार्ग पर चलने के लिए हम गुरु के महत्त्व पर विचार करेंगे। मुण्डकोपनिषद् का कथन है कि ब्रह्म का ज्ञान प्राप्त करने के लिए साधक को उस गुरु के पास जाना चाहिए जिसने आत्मा का अनुभव कर लिया है।” कठोपनिषद् का विचार है कि आत्मानुभव का मार्ग तलवार की धार पर चलने के समान कठिन है। परिणामस्वरूप व्यक्ति को आत्मा का ज्ञान उनसे प्राप्त करना चाहिए जो अनुभव की उच्च पीठिका पर स्थित हैं। भगवद्गीता में कहा गया है कि गुरु साधक को मोह की अवस्था से अनासक्ति की अवस्था पर ले जाने के लिए महत्त्वपूर्ण हैं।
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परमात्मप्रकाश, 1/60, 64, 65 प्रवचनसार, 176 मुण्डकोपनिषद्, 1/2/12 कठोपनिषद्, 1/3/14
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