Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 03
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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आत्मा में देखता है उसमें मोह, शोक और घृणा नहीं होती है। इस तरह से मिथ्या दृष्टिकोण जो अविद्या से उत्पन्न होता है वह हमें अनेकता को देखने के लिए बाध्य करता है। भगवद्गीता के अनुसार आत्मा प्रकृति के तीन गुणों से तादात्म्य कर लेती है। वह आत्मा के सच्चे स्वरूप को भूल जाती है। परिणामस्वरूप आवागमन का शिकार हो जाती है। जब योगी इन तीन गुणों से विकृत नहीं होता तब वह सब प्राणियों में आत्मा को देखता है और आत्मा में सब प्राणियों को देखता है। परिणामस्वरूप वह एकत्व का अनुभव करता है और अनेकता विलीन हो जाती है।
जैनधर्म के अनुसार आत्मा और अनात्मा में तादात्म्य सांसारिक जीवन का आधार है। पूज्यपाद का कथन है कि आत्मा पुद्गल से भिन्न है और पुद्गल आत्मा से भिन्न है।61 मिथ्यात्व अनन्त आवागमन का मूल है। जब लोकातीत आत्मा का अनुभव हो जाता है तो योगी के ज्ञान में सभी पदार्थ झलक जाते हैं किन्तु वह अपनी आत्मा उन पदार्थों में नहीं देखता है। योगीन्दु कहते हैं कि जगत का अस्तित्व परमात्मा के केवलज्ञान में है और वह जगत में है किन्तु वह जगत के रूप में बदलता नहीं है।2 सांसारिक वस्तुएँ उच्चतम अनुभव में भी भिन्न रूप से ही उपस्थित रहती हैं। इस बात में जैनधर्म का उपनिषदों और भगवद्गीता से भेद है। जैनधर्म नहीं कहता है कि अनेकता केवल दिखायी देती है किन्तु उसका मानना है कि अनेकता तात्त्विक रूप से निश्चित है, केवल आत्मा को उसके द्वारा भ्रमित नहीं होना चाहिए। यद्यपि अनादिकालीन अविद्या संसार का कारण है तो भी दोनों में अर्थ का अन्तर है। उपनिषद् 59. ईशावास्योपनिषद्, 50 60. भगवद्गीता, 14/5, 7/13, 27 61. इष्टोपदेश, 50 62. परमात्मप्रकाश, 1/41
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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