Book Title: Jain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 03
Author(s): Kamalchand Sogani, Shakuntala Jain
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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पूज्यपाद और अन्य दूसरे भी आत्मा को उच्चतम आनन्द से . भरा हुआ मानते हैं। 'इष्टोपदेश' का कथन है कि जो योगी अपनी आत्मा में स्थित होता है वह उच्चतम आनन्द प्राप्त करता है। योगीन्दु का योगसार' मानता है कि जो ध्यान में लगे हुए हैं वे अवर्णनीय आनन्द प्राप्त करते हैं। 'तत्त्वानुशासन' का कथन है कि आत्मा को आत्मा के द्वारा देखने से और उच्च एकाग्रता होने पर बाहरी वस्तुओं के होते हुए भी सिवाय आनन्द के उसको कुछ भी अनुभव नहीं देता। पूज्यपाद के अनुसार जो योगी ध्यान में डूब जाता है वह शारीरिक चेतना से परे हो जाता है।32
__इस प्रकार गीता, उपनिषद् और जैनधर्म आनन्द की प्राप्ति के संबंध में उल्लेखनीय समानता व्यक्त करते हैं किन्तु जैनदर्शन के अनुसार वस्तुएँ आत्मा पर आश्रित नहीं हैं या उनका उससे तादात्म्य नहीं है।
चतुर्थ, मुण्डकोपनिषद् परा विद्या और अपरा विद्या में भेद करता है और परा विद्या के पक्ष में यह निर्णय करता है कि यह आचार के उच्चतम आदर्श को निर्धारित करती है जिसका अनुभव करने से दूसरी सभी वस्तुएँ जान ली जाती हैं। परा विद्या जो उच्च ज्ञान के सदृश होती है वह ऐसे ब्रह्म को बताती है जो अदृश्य है, अग्राह्य है, असंबंधित है, रंग और आकृति से रहित है, नेत्र और कर्ण आदि ज्ञानेन्द्रियों से और हाथ-पैर आदि कर्मेन्द्रियों से रहित है, नित्य है, सर्वव्यापी है, अत्यन्त . 29. . समाधिशतक, 32 30. इष्टोपदेश, 47 31. योगसार, 97
तत्त्वानुशासन, 170, 172
इष्टोपदेश, 42 33. मुण्डकोपनिषद्, 1/1/3, 4 व शंकर की टीका सहित
32.
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Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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